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________________ समन्वयका मार्ग - स्याद्वाद १-१ हो जाते हैं और अन्य गौण वन जाते है। एकान्त दृष्टिमे अन्य गौण धर्मो को वस्तुसे पृथक् कर उन्हे अस्तित्वहीन वना दिया जाता है इसलिए मिथ्या एकान्त दृष्टिके द्वारा सत्यका सौदर्य समाप्त हो जाता है । अनेकान्त विद्या के प्रकाण्ड आचार्य अमृतचन्द्र कहते है' - जिस प्रकार दधि मन्थन कर मक्खन निकालनेवाली ग्वालिन अपने एक हाथसे रस्सी के एक छोरको सामने खीचती है, तो उसी समय वह दूसरे हाथ छोरको शिथिल कर पीछे पहुँचा देती है, पर छोडती नही है, पश्चात् पीछे गये हुए छोरको मुख्य बना रस्सीके दूसरे भागको पीछे ले जाती है । इस प्रकार आकर्षण और शिथिलीकरण क्रियाओ द्वारा दधिमेसे सारभूत तत्त्वको प्राप्त करती है । अनेकान्त विद्या एक दृष्टिको मुख्य नाती है और अन्यको गौण करती है । इस प्रक्रिया के द्वारा वह तत्त्वज्ञान रूप अमृतको प्राप्त कराती है। पहिले सखियाको जन साधारणकी भापामे प्राण घातक बताया था, वैद्यराजकी दृष्टिमे उसे उसके विपरीत प्राण-रक्षक कहा था। इन परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले वक्तव्योमं विरोध इस प्रकार दूर किया जा सकता है कि यदि मनमानी मात्रामे विना योग्य अनुपानके वह खाया जाय तो प्राण-रक्षक नही होगा किन्तु चतुर चिकित्सकके तत्वावधान मे यथाविधि सेवन करनेपर वही रोग निवारक होगा। इसलिए उसे एक दृष्टिसे प्राणरक्षक कहना ठीक है । दूसरी दृष्टिसे प्राणघातक कहना भी सत्यकी मर्यादाके भीतर है। एक तीन इञ्च लम्बी रेखा खिची है। उसे हम न तो छोटी कह सकते है और न वडी । उसका छोटापन अथवा लम्वापन सापेक्ष १ " एकेनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ।।" - पुरुषार्थसिद्धयुपाय २२५
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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