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जैनशासन
वहू तो, विपत्तियोको आमत्रण देता है और अपने आत्मबलकी परीक्षा लेता है। ऐसा अहिंसक शराव, हड्डी, चमड़ा, मछलीके तेल सदृश हिंसासे साक्षात् सम्वन्धित वस्तुओके व्यवसाय द्वारा बड़ा धनी वन राजप्रासाद खडे करनेके स्थानपर ईमानदारी और करुणापूर्वक कमाई गई सूखी रोटीके टुकड़ोको अपनी झोपड़ीमे बैठकर खाना पसद करेगा। वह जानता है कि हिंसादि पापोमे लगनेवाला व्यक्ति नरक तथा तिर्यञ्च पर्यायमे वचनातीत विपत्तियोको भोगा करता है । अहिंसात्मक जीवनसे जो आनन्दनिर्झर आत्मामे वहता है उसका स्वप्नमे भी दर्शन हिमकवृत्तिवालोके पास नहीं होता। वाह्य पदार्थोके अभावमे तनिक भी कप्ट नहीं है, यदि आत्माके पास सद्विचार, लोकोपकार और पवित्रताको अमूल्य सम्पत्ति है। मेवाड़की स्वतन्त्रताके लिए अपने राजसी ठाठको छोड़ वनचरोके समान धासकी रोटी तक खा जीवन व्यतीत करनेवाले क्षत्रिय-कुल-अवतस महाराणा प्रतापकी आत्मामे जो शान्ति और शक्ति थी, क्या उसका शताश भी अकवरके अधीन वन माल उडाते हुए मातृभूमिको पराधीन करनेमे उद्यत मानसिंहको प्राप्त था? इसी दृष्टिसे अहिंसाकी साधनामें कुछ ऊपरी अडचने आवे भी तो कुतर्क की ओटसे हिंसाकी ओर झुकना लाभप्रद न होगा। जिस कार्यमें आत्मा की निर्मल वृत्तिका घात हो उससे सावधानीपूर्वक साधकको वचना चाहिए।
इस अहिंसात्मक जीवनके विषयमे लोगोने अनेक भान्त धारणाएँ वांध रखी है । कोई यह सुझाते है कि यदि आनन्दको अवस्थामे किसी को मार डाला जाए, तो गान्तभावसे मरण करनेवालेकी सद्गति होगी। वे लोग नही सोचते कि मरते समय क्षण-मात्रमें परिणामोकी क्या से क्या गति नहीं हो जाती। प्राण परित्याग करते समय होनेवाली वेदनाको वेचारा प्राण लेनेवाला क्या समझे!
"जाके पांव न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई।"