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जनगासन
"दृष्टिपूतं न्यसेत्सादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ।
सत्यपूतां वदेद् वाचं, मनःपूतं समाचरेत् ॥” ६।४६ । इससे जैनियोंके दया-बर्मरक्षक तत्त्वका पोषक छना पानी पीनेका उपहास करनेमें सानेजीका सयानापन सत्यके प्रकाशमें नहीं दीवता। जैनधर्ममें अहिंसाका सम्बन्ध उस प्रवृत्तिसे है जो मानसिक निर्मलता एवं आत्मीय स्वास्थ्यका संरक्षण करे। मावनाके पथमें मनुष्यका जैसाजैसा विकास होता जाता है, वैसे-वैसे वह अपनी चर्या प्रवृत्तिको सात्त्विक प्रबोधक और संवर्वक बनाता है। जिन पदार्थोसे इन्द्रियोकी लोलुपता बढ़ती है, उच्च सावनाके पथमें उनका परिहार बताया गया है। भोजनकी पवित्रता जिस प्रकार उच्च सावकके लिए आवश्यक है, उसी प्रकार जलविषयक विशुद्धता भी लाभप्रद है। जैसे रोगी व्यक्तिको वैद्य उष्ण किए हुए जल देनेकी सलाह देता है क्योकि वह पिपासाका वर्वक्र नहीं होता, दोषोंको नमन करता है, अग्निको प्रदीप्त करता है और क्या-क्या लाभ देता है, यह छोटे-बड़े सभी वैद्य वतावेंगे। आत्माको स्वस्य बनानेके लिए वह साववान रहता है कि शरीरं व्याविमन्दिर' न बने और स्वास्थ्यमटन रहे, तो तपःसावना, लाक्रहित, ब्रह्मचिन्तन आदिके कार्यो वावा नहीं आएगी। अन्यथा रोगाक्रान्त होनेपर
___ "कफ-वात-पित्तः कण्ठावरोधनविधी स्मरणं कुतस्ते।" वाली समस्या आए बिना न रहेगी। ___ आत्मनिर्मलताके लिए गरीरका नीरोग रखना साधकके लिए इप्ट है और शरीरकी स्वस्थताके लिए शुद्ध आहार-पान वाछनीय है। इसलिए स्वास्थ्यवर्वक आहारपान पर दृष्टि रखना आत्मीक निर्मलताकी दृष्टिसे आवश्यक है । उष्ण जल तैयार करनेमें स्थूल दृष्टिसे जलस्य जीवों का तो ब्वंस होना ही है, साथ ही अग्नि आदिके निमित्तसे और भी जीवो का बात होता है। किन्तु, इम द्रव्यहिमाके होते हुए भी मानसिक निर्मलता, नीरोगता आदिकी दृष्टिसे उच्च सावकको गरम किया हुआ,