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अहिंसा के आलोक मे
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परिस्थिति और अर्ककीर्तिकी ज्यादतीका वर्णन किया। साथ में यह भी लिखा कि मैं अपनी दूसरी कन्या अर्ककीर्तिको देने को तैयार हूँ । इस चर्चा को ज्ञात कर भरतेश्वरको अकम्पन महाराजपर तनिक भी रोष नही आया प्रत्युत अर्ककीर्तिके चरित्रपर उन्हें घृणा हुई।' उन्होने कहाअकम्पन महाराज तो हमारे पूज्य पिता भगवान्, ऋषभदेवके समान पूज्य और आदरणीय है । अर्ककीर्ति वास्तवमे मेरा पुत्र नही, न्याय मेरा पुत्र है । न्यायका रक्षण कर महाराज अकम्पनने उचित किया। उन्हें विना सकोचके अर्ककीर्तिको दण्डित करना था। इस कथानकसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन क्षत्रिय- नरेश न्याय देवताका परित्राण और कर्तव्य पालनमें कितने अधिक तत्पर रहते थे ।
१ महाराज करके दूत सुमुखसे चक्रवर्ती भरतेश्वरने कंपनकी पूज्यताको इन शब्दो द्वारा प्रकाशित किया
"गुरुभ्यो निविशेषास्ते सर्वज्येष्ठाश्च सम्प्रति ॥ ५१ ॥ गृहाश्रमे त एवाच्यरितैरेवाहं व बधमान् । निषेद्वारः प्रवृत्तस्य ममाप्यन्यायवर्त्मनि ॥ ५२ ॥ पुरवो मोक्षमार्गस्य गुरवो दानसंतते: । श्रेयांश्च चक्रिणां वृत्तेर्यहास्म्यहमग्रणीः ॥ ५३ ॥ afari तथा स्वयवरस्येमे नाभूवन् य कम्पना । कः प्रवर्तयितान्योऽस्य मार्गस्यैष सनातनः ॥ ५४ ॥ " “अर्क की तरकीति में कोर्तनीयामकोतिषु ॥ ५७ ॥" "उपेक्षित. सदोपोऽपि स्वपुत्रश्चकर्बातिना । satara स्थायि व्यधायि तदकम्पनैः ॥ ६६ ॥ इति संतोष्य विश्वेशः सोमुख्यं सुमुख नयन् । हित्वा ज्येष्ठं तुजं तोकमकरोन्न्यायमीरसम् ॥ ६७॥
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- महापुराण पर्व ४५ ॥