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प्रवृद्ध-साधक
"दुर्लभ है निगोद से थावर अरु त्रस- गति पानी । नर-कायाको सुरपति तरसे, सो दुर्लभ प्रानी ॥ उत्तम देश सुसंगति दुर्लभ श्रावक - कुल पाना । दुर्लभ सम्यक्, दुर्लभ संयम, पचम गुण ठाना ॥ दुर्लभ रत्नत्रय आराधन, 'दीक्षाका धरना । दुर्लभ मुनिवरको व्रत पालन, शुद्ध भाव करना ॥ दुर्लभ-से-दुर्लभ है चेतन, बोविज्ञान पाना | पाकर केवल ज्ञान, नहीं फिर इस भवमें श्राना ॥"
- मंगतराय, बारह भावना
विपयभोगोमे मनुष्य-जीवनको लगानेवाले, साधककी दृष्टिमे, अतापूर्ण काम करते है । उस अज्ञताको बनारसीदासजी इन गब्दोमे चित्रित करते है
"ज्यो मति-हीन विवेक बिना नर,
साजि मतंग जो ईंधन ढोवें ।
धूरि भरें
शठ,
मूढ सुधारस सो
कचन - भाजन
व-हित
पग
धोवं ॥
काग उड़ावन कारन,
डारि उदधि 'मनि' मूरख रोवे ।
त्यो नर- देह दुर्लभ्य बनारसि,
पाय श्रजान प्रकारय
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खोवै ॥"
- नाटक समयसार
सुकवियोने अपनी विविध शैलीसे साधक के जीवनपर वडा सुन्दर प्रकाश डाला है। महाकवि बनारसीदास, गृहके त्याग करनेवाले और तपोवन-वासी साधुको सद्गुणरूपी कुटुम्बसे गृहवासी बताते है । देखिए
" धीरज-तात, क्षमा-जननी, परमारथ-मौत, महारुचि-मासी । ज्ञान-सुपुत्र, सुता-करुणा, मति-पुत्रवधू, समता प्रति भासी ॥
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