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प्रवुद्ध-साधक
हुए भी श्रेष्ठ अहिंसा-वृत्तिका रक्षण हो सकता है और इसलिए निर्वाणका भी लाभ हो सकता है, उन्हे सोचना चाहिए कि बाह्य वस्तुओंके रखने, उठाने आदिमे मोह ममताका सद्भाव दूर नही किया जा सकता। ___ एक साधुकी कथा प्रसिद्ध है-पहिले तो वह सर्व परिग्रहरहित था, लोकानुरोधसे उननं दो लँगोटिया स्वीकार कर ली। चूहे द्वारा एक बार वस्त्र कट गए, तव निश्चित सरक्षणनिमित्त चूहेकी औषधिके लिए विल्ली पाली गई। और, विल्लीके दुग्धनिमित्त गौकी व्यवस्था भक्तजनोके प्रेम के कारण स्वीकार कर ली गई। गायके चरानेके लिए स्वावलम्बनकी दृप्टिसे कुछ चरोखर भूमि भी एक भक्तसे मिल गई। कहते है-भूमिका कर समय पर न चुकानेसे साधुजीसे अ-जानकार राज-कर्मचारीने उनकी बहुत बुरी तरह मान-मरम्मत की। उस समय शान्त अत.करणने अपनी आवाज द्वारा उन्हें सचेत किया-“भले आदमी, परिग्रह तो ऐसी आफत पुरस्कारमे प्रदान किया ही करता है"
"फांस तनक सो तन में साल। चाह लंगोटीकी दुख भाले ॥ भाल न समता सुख कभी नर बिना मुनि मुद्रा धरे । धन नगन' पर तन-नगन गढ़े सुर-असुर पायनि परे॥"
द्यानतराय प्रवचनसारमे कुन्द-कुन्द स्वामीने लिखा है
मुनियोके गमनागमनादिरूप चेष्टासे त्रस, स्थावर जीवोका वध होते हुए भी कभी वध होता है, कभी नही भी। किन्तु, यह तो निश्चित है कि उपधियोसे-वस्त्रादि परिग्रहसे नियमसे वध होता है। इसलिए
१ पर्वत। २ "हवदि वा ण हददि बंधो मदम्हि जीवेऽघ काय चेटुम्हि ।
बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा छड्डिया सन्चे ॥ णहि णिरवेक्खो चागो ण हवदि भिक्खुस्स आसय-विसुद्धी। अविसुद्धरस य चित्ते कहं णु कम्मक्खनो विहिरो॥