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जैनशासन
नहीं पहुँचता। विश्वकवि रवीन्द्र वाबूके ये उद्गार महत्त्वपूर्ण है, “वासनाको छोटा करना ही आत्माको वडा करना है।" भोग प्रधान पश्चिमको लक्ष्य बनाते हुए वे कहते है, "यूरोप मरनेको भी राजी है, किन्तु वासताको छोटा करना नहीं चाहता। हम भी मरनेको राजी है, किन्तु आत्माको उसकी परमगति-परम सपत्तिसे वंचित करके छोटा बनाना नही चाहते" साधनाके पथमे मनुष्यकी तो बात ही क्या, होनहार उज्ज्वल भविष्यवाले पशुओ तकने असाधारण आत्म-विकास और सयमका परिचय दिया है। भगवान् महावीरके पूर्व भवोपर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है, कि एक वार वे भयकर सिंहकी पर्यायमें थे और एक मृगको मारकर भक्षण करनेमे तत्पर ही थे, कि अमितकीर्ति और अमितप्रभ नामक दो अहिंसाके महासाधक मुनीन्द्रोके आत्मतेज तथा ओजपूर्ण वाणीने उस सिहकी स्वाभाविक क्रूरताको धोकर उसे प्रेम और करुणाकी प्रतिकृति बना दिया। महाकवि अशगके शब्दोमे ऋषिवर श्री अमितकोतिने उस मृगेन्द्रको शिक्षा दी थी कि "स्व सदृगान् अवगम्य सर्वसत्वान्"-अपने सदृश सपूर्ण प्राणियोको जानते हुए 'प्रशमरतो भव सर्वथा मृगेन्द्र' हे मृगेन्द्र ! तू क्रूरताका परित्याग कर और प्रशान्त वन। अपने शरीरकी ममता दूर कर अपने अन्त करणको दया कर 'त्यज वपुषि परा ममत्वबुद्धिं । कुरु करुणामनारत स्वचित्तम्।' उनने यह भी समझाया, यदि तूने सयमरूपी पर्वतपर रहकर परिशुद्ध दृष्टिरूपी गुहामे निवास किया तथा प्रशान्त परणति रूप अपने नखोसे कषायरूपी हाथियोका सहार किया, तो तू यथार्थमे 'भयसिंह' इस पदको प्राप्त करेगा।'
यदि निवससि संयमोन्नताद्री प्रविमलदृष्टि गुहोदर परिघ्नन् उपशमनखरः कषायनागास्त्वमसि तदा खलु सिह ! भव्यसिंहः
[महावीरचरित्र-११ सर्ग, ३८ ] हे सिंहश्रेष्ठ | तू पचपरमेष्ठियोको सदा प्रणाम कर। यह नमस्कार १ 'स्वदेश से।
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