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________________ ४३२ . जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ ५-इस यन्त्र के द्वारा मूत्र को देखने से यदि उस (मूत्र ) के नीचे कुछ जमाव .सा मालम पड़े तो समझ लेना चाहिये कि-खार, खून, रसी (पीप) तया चर्वी आदि का भाग मूत्र के साथ जाता है, इन में भी विशेषता यह है कि-खार का भाग अधिक होने से मूत्र फटा हुआ सा, खून का भाग अधिक होने से धूम्रवर्ण, • रसी (पीप) का भाग अधिक होने से मैल और गदलेपन से युक्त तथा ची का भाग अधिक होने से चिकना और चर्बी के कतरों से युक्त दीख पड़ता है। ६-मूत्र में खटास का माग अधिक होने से वह (मूत्र) रकवर्ण का (लाल रंग का) तथा पित्त का भाग अधिक होने से पीत वर्णका (पीले रंग का) और फेनों से हीन इस यन्त्र के द्वारा स्पष्टतया (साफ तौर से) दीख पड़ता है। ७-मूत्र में शकर के भाग का जाना इस यन्त्र के द्वारा प्रायः सब ही जान सकते हैं, क्योंकि शक्कर का खरूप सब ही को विदित है। -इस यन्त्र के द्वारा परीक्षा करने से यदि मूत्र-फेनरहित, अतिश्वेत (बहुत सफेद अर्थात् अण्डे की सफेदी के समान सफेद), निग्ध (चिकना), पौष्टिक तत्त्व से युक्त, ऑटे के लस के समान लसदार, पोश्त के तेल के समान बिग्व तथा नारियल के गूदे के समान लिन्ध (चिकने) पदार्थ से संघट्ट (गुथा हुआ), गाढा तथा रक (खून) की कान्ति (चमक) से युक्त दीख पड़े तो जान लेना चाहिये कि-मूत्र में आल्ब्यूमीने है, इस प्रकार आलम्युमीन का निश्चय हो जानेपर मूत्राशय के जलन्धर का भी निश्चय हो सकता है, जैसा कि पहिले लिख चुके हैं। ९-इस यन्त्र के द्वारा देखने पर यदि मूत्र में जलाये हुए पौधे की राख के समान, वा कढ़ाई में भूने हुए पदार्थ के समान कोई पदार्थ दीखे अथवा सोडे की राख १-इस का कुछ वर्णन आगे नवीं संख्या में किया जायेगा। २-यह शब्द दो प्रकार का है-जिन में से एक काउन्धारणमाल्ब्युभ्यन है, यह लाटिन त्या फ्रेच भाषा का शन्द है, इस को फ्रेंच भाषा मै अलवस भी कहते है, जिसका अर्थ 'सफेद, है, इस शब्द के तीन अर्थ हैं-१-अण्डे की सफेदी, २-परवरिश करनेवाला मादा जो बहुत से पोषों के बीजके परदे में इकट्टारहता है परन्तु गर्भ में मिला नहीं रहता है, यह अन्न अर्थात् नेहूँ और इसी किस्म के दूसरे अन्नों में आटे का हिस्सा होता है, पोस्त के दाने मै रोगनी (तेल का) हित्या होता है और नारिवल में गूदेदार हिस्सा होता है, ३-यह रसायन के लिहाज से वही वस्तु है जो कि आल्ल्युनीन है (जिस का अर्थ अभी आगे कहते हैं), दूसरे शब्द का उचारण आल्युमीन है, वह गाढ़ा व तया विषैला पदार्य होता है जो कि खास आवश्यक (जरूरी) मादा अण्डे का होता है और लोहू का पंछ होता है और वह दूसरे हैवानी मादों में पाया जाता है, वह चाहे द्रव हो और चाहे रड़ हो. इस के सिवाय यह पौधों में भी पाया जाता है, यह पानी में घुलजाता है तथा गर्मी और दूसरी रसायनिक रीतियों से जम जाता है ।।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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