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श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय) ।
ने बिचारा, यह बैर लेनेका अवसर है, तब महापद्म चक्रवर्ति से चीनती करी, मैं वेदोक्त महायज्ञ करूंगा इसवास्ते पूर्वोक्त बर चाहता हूं, चक्रवर्ती ने कहा, मांग, तब बोला, कितनेक दिनों के लिये आपका राज्य में करूं, ऐसा वर याचताहूं, तब चक्री सर्वाधिकार कतिपय दिनों का दे, आप अंतेउर में चला गया, अव नमुचिवल नगर के बाहिर यज्ञ पाटक बनाया, उहाँमुंज, मेखला, कोपीनादि दीक्षा धार के आसन ऊपर बैठा, अब शहर के सर्व लोक तथा सर्व दर्शनी भेट घर के नमस्कार करा, तब नमुचिवल ने पूछा ऐसा भी कोई है सो नहीं आया है, तब लोकों ने कहा, एक जैन मुंबताचार्य नहीं पाया, यह छिद्र पाके क्रोधातुर होके सुभटों को बुलाने भेजा, राजा चाहे कैसा हो, मानने योग्य है, आचार्य श्राये, तब आक्रोश कर कहने लगा, तुम क्यों नहीं आये, तुम वेद, धर्म के निंदक हो, इस पास्ते मेरे राज्य से बाहिर निकल जाओ, जो रहेगा, उसको मैं मार डालूंगा, तब गुरु मीठे वचन से समझाने लगे, हे नरेद्र! हमारा ये कल्प नहीं, जो गृहस्थों के कार्य में जाना, लेकिन अभिमान से नहीं, साधु अपने धर्मकृत्य में लगे रहते हैं, तब बड़ी कठोरता से नमुचिबल ने कहा, ७ दिन के अंदर मेरे राज्य से चले जाओ, तब प्राचार्य अपने तपोबन में पाये, विचार करनेलगे, अब क्या करना, एक साधु बोला, महापद्म चक्रवर्ति का बड़ा माई विष्णुकुमार महान् शक्तिवाला मेरु पर्वत पर है, वो आवे तो अभी शान्ति कर देगा, एक साधु बोला, मैं जा तो सक्ता हूं, पीछा, भाने की शक्ति नहीं, प्राचार्य बोले, तुझको विष्णुकुमार पीछा ले आयगा, तब वो साधु उड़के मेरु पर्वत गया, सर्व वृत्तांत सुनाया, तब विष्णुकुमार उसको हाथ में उठा के आचार्य के चरणों में लगे, गुरु आज्ञा ले, इकेले ही नमुचित्रल के पास गये, और कहा, निःसंगी साधुओं से विरोध करना यह नरक का कारण है, साधु किसी का बिगाड़ नहीं करते, तुच्छ क्षणिक राज के पाने से मदांध ! अधम ! साधुओं से नमस्कार कराने चाहता है, अरे नमुचिबल! इस अधम कृत्य का अभिमान त्यांग दे, जो साधु सुख से धर्म ध्यान करे, नहीं तो तेरा अाराध तेरे को दुःख दाता होगा, साधु चौमासे में विहार करते नहीं, और छः खंड में वेरा राज्य इस अवसर में है, साधु ।