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श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय)।
अवसर में चंपा नगरी का इक्ष्वाकुवंशी चन्द्रकीर्चि राजा बिना पुत्र मराया। लोक चिंता करते थे कि यहां राजा किसको करना। उन लोकों को लेजा के देव ने सौंपा और कहा ये हरि नाम का तुम्हारा राजा हुआ और ये हरिणी नाम की राणी हुई । वह देव देवकुरु उत्तरकुरु क्षेत्र से उन राज्य वर्गी लोकों • कल्प वृक्ष का फल ला देता है और कहता है इन फलों में मांस मिश्रित कर इन दोनों को खिलाया करो। इन्हों से आखेट ( शिकार ) कराया करो, तब लोकों ने वैसा ही किया, उन्हों की ओलाद हरिवंशी कहलाये वह दोनों मर पाप के प्रभाव से नरक गये। इसके पीछे कई एक राजन्यवंशी मांस भक्षक हुये । इस वंश में वसु राजा हुआ । शीतलनाथ स्वामी निर्वाण पाये बाद तीर्थ विच्छेद गया । इस तरह पनर में धर्मनाथ स्वामी तक शाशन तीर्थ विच्छेद होता रहा, और माहन लोकों का मिथ्यास्व बढ गया, अनेक मठ मंडपादिक बन गये।
तद पीछे सिंहपुरी नगरी में इच्वाकु वंशी विष्णु नाम राजा उनकी विष्णु श्री नाम की राणी से श्रेयांसनाथ नाम के ग्यारवां तीर्थकर उत्पन हुआ। इन्हों के विद्यमान समय में वैतात्य नाम पर्वत से श्रीकंठ नामा विद्याधर के पुत्र ने पमोत्तर विद्याधर की बेटी को अपहरण कर अपने बहनोई राक्षसर्वशी लंका का राजा कीर्तिधवल की शरण गया। तब कीर्चिधवल ने तीन सौ योजन प्रमाण वानर द्वीप उनके रहने को दिया। उस श्रीकंठ की सन्तानों में चित्र, विचित्र नाम के विद्याधरों ने विद्या के प्रभाव मे बंदर का रूप बनाया तब वानर द्वीप के रहने से और वानर रूप बनाने से वानरवंशी प्रसिद्ध हुये । मनुष्य जैसे मनुष्य थे, न राक्षस द्वीप वाले कोई अन्याकृति के थे, बानर द्वीप वाले विद्या से अद्भुत रूप बनालेना विद्याधरों का कृत्य था, इन्हीं के ही संतान परम्परा में बवाली, सुग्रीव, हनुमान, नल, नील जामवंतादि हुये हैं।
श्रेयांसनाथ के समय में पहिला त्रिपृष्ट नाम का वासुदेव मरीचि का जीव हरिवंश में हुआ। पोतनपुर नगर में हरिवंशी जितशनु नामा राजा.