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अदेव स्वरूप 1
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के पास हो, तैसे अक्षसूत्र, जपमाला, आदि शब्द से कमंडल प्रमुख होय, राग द्वेषादि दूषणों का जिनमें चिन्ह होय, त्री रखनेवाला अवश्य कामी स्त्री से भोग करनेवाला होगा इससे अधिक रागवाला होनेका फिर कौनसा चिन्ह होगा, इसी काम राय के वश होकर प्रदेवों ने परस्त्री स्वनी बेटी माता, बहिन और पुत्र की वधू प्रमुख रो काम क्रीडा करी। उन के जीवन चरित्र पक्षपात त्याग कर विचारो, अब जो पुरुष मात्र होकर पर स्त्री गमन करता है उसे आज कल के मतावलंबियों में से कोई भी अच्छा नहीं कहता न उस समय उनों को कोई अच्छा कहताथा । परमेश्वर उनों को मानने वाले कुछ बुद्धि द्वारा विचार करें, परमेश्वर परस्त्री से काम कुचेष्टा करे उसके कुदव होन में कोई भी बुद्धिमान् शंका नहीं करसकता । जो परणीतां स्वस्त्री से काम सेवन करता है और परस्त्री का त्यागी है उत्तथं मी धर्मीगृहस्य स्वस्त्रीसंतोषी परदारात्यागी लोग कहते हैं लेकिन उसे मुनि वा
पि, साधु कोई भी नहीं कहता, ईश्वर कहना तो दूर रहा क्योंकि जो आप ही कामाधि के कुंड में जल रहा है ऐसे में कमी ईश्वरता नहीं हो सकती। इस लिये जो राग के चिन्ह से संयुक्त है वह अदेव, पुनः जो द्वेष के चिन्न कर युक्त है वह भी अदेव है। शस्त्र रखना द्वेष के चिन्ह हैं, घनुप, चक्र, त्रिशत प्रमुख रक्खेगा वह अवश्य किसी अरने बाह्य शत्रु को मारना चाहता है नहीं तो शन्न रखने से क्या मतलब, जिस के वैर विरोध कलह लगा हुआ है वह परमेश्वर नहीं हो सकता। जो ढाल, तलवार रक्खेगा यह अवश्य भय से युक्त है जो आप मय से युक्त है उस की सेवा करने से हम निर्भय कैसे हो सकते हैं । ऐसे द्वेप संयुक्त को कौन बुद्धिमान् परमेश्वर कह सकता है, परमेश्वर तो वीतराग है, राग द्वेप युक्त जो है सो परमेश्वर नहीं, अदेव है।
जिसके हाथ में जामाला है वह असर्वज्ञता का चिन्ह है। जो सर्वज्ञ होता तो विना माला के मणि के भी जप की संख्या कर सकता और जप करता है तो अपने से उच्च कोई दूसरा है उसका करता होगा। बुद्धिमान् विचार सकते हैं कि परमेश्वर से उच्च फिर कौन है जिसका यह जप करता है इसलिये माला जपने वाला सर्वज्ञ परमेश्वर नहीं।