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देवाधिदेवस्वरूप ।
४ मूल अतिशय और ८ प्रातिहार्य एवं १२ गुणों से विराजमान अर्हत
परमेश्वर होते हैं ।
अठारह दूषण रहित होते हैं उन के नाम
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यतः --- अन्तरायोदानलाभोवीर्य भोगोपभोगगाः । हासोरत्यरतिभांतिर्जुगुप्वाशोकवच ॥ १ ॥ कामोमिथ्यात्वमज्ञानं निद्राचाविरतिस्तथा । रागोद्वेषश्चनोदोषास्तेषामष्टादशाप्यमी ॥ २ ॥
(१) दान देने में अंतराय (२) लाभगत अंतराय (३) वीर्यगत अंतराय ( ४ ) जो एक वेर भोगने में आवे सो भोग पुष्प मालादि तद्गत अंतराय सो भोगांतराय ( ५ ) बेर बेर भोगने में आवे घर आभूषयादि तद्गत अंतराय सो उपभोगांतराय ( ६ ) हास्य ( हंसना ) ( ७ ) रति ( पदार्थों के ऊपर प्रीति ) ( ८ ) अरति (पदार्थों के न मिलने से ) बेचैनी (६) भय सात प्रकार का (१०) जुगुप्सा ( मलीन वस्तु को देख नाक चढाना ) ( ११ ) शोक ( चित्त का वैघूर्यपना ) विकलपना (१२) काम ( मन्मथ ) स्त्री, पुरुष, नपुंसक इन तीनों का भेद विकार (१३) मिथ्यात्व ( दर्शनमोह) (१४) अज्ञान ( मूर्खपना ) (१५) निद्रा ( शयन करना ) (१६) अविरति ( पांचों इंद्रियों को वश में न रखना) सब वस्तुओं का त्याग ( १७ ) राग ( पूर्व सुख उसे साधने में लंपटता) (१८) द्वेष ( पूर्व दुःखों का स्मरण और पूर्व दुःख में वा उसके साधन विषय (क्रोध) ये अठारह दूषण जिनमें नहीं सो अर्हत भगवंत परमेश्वर है । इन में से एक भी दूपण जिसमें हो वह कदापि भगवान् परमेश्वर नहीं होसकता ।
इन १८ दूषणोंका विस्तार अर्थ लिखते हैं- प्रश्न - दोनान्तराय तो तेरे बिना अन्य किसी भी देव में नहीं है । इसलिये तू परमेश्वर तरणतारण है। भक्तामर स्तोत्रकार कहता है " नान्यं सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता" अर्थात्तेरी तुलना करने वाला अन्य पुत्र माता ने नहीं जना ।
१. दानांतराय के नष्टता से निज ज्ञानादि अनन्त गुण का दान देते है ।