________________
( ६७ ) २७. परमात्मा अनन्त हैं परमात्मा एक नहीं है, किन्तु अनन्त है। क्योंकि इस अनादि अनन्त जगत में जो कोई आत्मा अपने को शुद्ध कर लेता है.वही परमात्मा के पदमें पहुँच जाता है । इसलिये अनन्त परमात्मा भिन्न २ अपने २ ज्ञानानन्द में इस तरह मग्न रहते है जिस तरह अनेक साधु एक स्थल पर बैठे आत्मध्यान कर रहे हो । यद्यपि गुणों की अपेक्षा सव वरावर है। सवही अन. न्तनानी, वीतरागी, परमसुखी हैं. तथापि अपनी २ सत्ता की अपेक्षा भिन्न २ है । भक्त जन चाहे एक परमात्मा को, चाहं अनेक परमात्माओं को लक्ष्य कर भक्ति करें, उनके भावों में शुद्धिरूप फल समान होगा, क्योंकि गुणों की ही भक्ति से गुणो की निर्मलता होती है। २८. जगत का कर्ता व सुख दुःख के फल का
दाता परमात्मा नहीं हो सकता
परमात्मा शुद्ध स्वात्मानन्द में लय रहते है । उनके भाव में संकल्प विकल्प उठ ही नहीं सकते, क्योंकि जहां विचार की तरङ्गे होंगी, वहां प्रात्मसमाधि नही रहेगी और न श्रात्मानन्द का भोग होगा। + ठुकम्मवघा अट्टमहागुणसमरिणया परमा । लोयग्गठिदा णिचा सिद्धा जे एरिसा होति ॥७२॥
(नियमसार) भावार्थ-आठों कर्म रहित व आठ महागुण सहित अवि. नाशी अनन्त सिद्ध लोकके अग्रभाग में विराजित रहते है।
-