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१ बहिरान्मा जो शरीर आदि रूप व क्रोधादिरूप व अज्ञान व अल्प-ज्ञानरूप अपने प्रात्मा को जानते हैं तथा जो संसार के सुखों में रागी हैं; सच्चे परमात्मा या प्रात्मा को नहीं जानते हैं।
२ अन्तरात्मा-जो अपने आत्मा को पहिचानते हैं, अतीन्द्रिय स्वाधीन आनन्द के खोजी है, संसार शरीर भोगों से विरक्त हैं। यदि गृह में रहते है तो जल में कमल समान उदासीन रहते हैं। यदि साधु होजाते है तो सर्व धनादि परि. ग्रह छोड़ आत्मध्यानरूपी यज्ञमें कौका होम करते हैं। इन्हीं को महात्मा कहते हैं।
३. परमात्मा--जो शुद्ध आत्मा है, जगत के प्रपञ्च जाल व चिंता से रहित हैं, जिनके ज्ञानमें सर्व द्रव्यों की सर्व पर्याय झलक रही हैं तो भी दीपशिखाके समान किसी से प्रीति अप्रीति नहीं करते निरन्तर स्वात्मानन्द में मग्न रहते हैं ।
* बहिरन्तः परश्चेति त्रिधात्मा सर्व देहिषु । उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद्वहिस्त्यजेत् ॥४॥ बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मम्रान्तिरान्तरः । चित्तदोषात्म विभ्रान्तिः परमात्मातिनिर्मलः ॥५॥
(समाधिशतक) भावार्थ-आत्माके तीन भेद हैं, बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा । इनमें से अन्तरात्मा होकर व बहिरात्मापना त्याग कर परमात्मा होने का यत्न करो।
जो शरीरादि में आत्माका भ्रम रखता है वह वहिरात्मा है, जो रागादि से भिन्न आत्मा को जानता है वह अन्तरात्मा है, जो परम शुद्ध है वह परमात्मा है। '
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