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( ६० ) (५) यह जीव अमूर्तीक है-निश्चय नय से इसमें कोई स्पर्श, रस, गंध, वर्ण (जो गुण पमाणुओं में होते हैं) नहीं है. इससे यह अमूर्तीक है, परन्तु जड़ कर्म का बन्धन हरएक संसारी श्रात्मा के अंश अंश में है । इसलिये व्यवहारनय से यह मूर्तीक है।
(६) यह जीव आकारवान है-इस आकाश में जो कोई वस्तु जगह पायगी उसका आकार होना चाहिये। आकार लम्वाई चौड़ाई आदि को कहते हैं। जीव भी एक पदार्थ हैं, इसलिये आकारवान है; परन्तु यह आकार चेतनमई है, जड़ रूप नहीं है। निश्चयनय से एक जीव असंख्यात प्रदेश रखता है, अर्थात् तीन लोक के बराबर है। प्रदेश क्षेत्र का वह सबसे छोटा अंश है, जिस को एक अविभागी परमाण धेरै । व्यव. हारनय से यह शरीर के प्रमाण प्राकाग्वान है। छोटे शरीर में छोटा व बड़े में बडा हो जाता है । इस में कर्म के फल के निमित्तसे सकुडना फैलना होता है । शरीरमें रहते हुए कमा शरीर से बाहर फैलकर आत्मा का श्राकार फैलता व फिर सकुड़ कर शरीर प्रमाण होजाता है, ऐसी दशाको समुद्घात कहते है । वेदना कषाय, आदि के निमित्त से कमी २ ऐसा हो जाता है । क्योंकि हम को सर्वांग स्पर्श का ज्ञान होता है व शरीर से बाहर स्पर्श का ज्ञान नहीं होता है, इससे सिद्ध है कि हमारा आत्मा शरीर प्रमाण है।
समुद्घात सात होते हैं:
१. वेदना-कष्ट को भोगते हुए शरीर से बाहर फैल कर हो जाना।
२. कपाय-क्रोधादि के निमित्त से फैलना।