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________________ ( ४६ ) अरहन्त शरीर सहित होते हैं तब ही उनसे धर्म को उपदेश मिल सकता है । शरीर रहित परमात्मा वचन रूप उप देश नहीं दे सकता है । I जो परमात्मा होने के लिये अज्ञान और कषायों के मेटने का उद्यम करते हों और रातदिन इसी श्रात्मोन्नतिमें लीन हो, अपने पास वस्त्र पैसा वर्तन न रखते हों, नग्न हो, मात्र जीव रक्षा के लिये मोर पंख की पीछी और शौच के लिये जल लेने को काठ का कमडल रखते हो, वे ही साधु गुरु हैं । इनमें जो अन्य साधुओं को मार्ग पर चलाते हैं, उन साधुओंको श्राचार्य कहते हैं । जो साधु शास्त्र ज्ञान कराते हैं, उनको उपाध्याय कहते हैं । शेष साधु मात्र कहलाते हैं। + ऐसे ही साधु की सङ्गति से सच्च े धर्म का उपदेश मिल सकता है। इन साधुओं ने अरहन्त के उपदेश के अनुसार जो शास्त्र रचे हों, जिन में श्रात्मोन्नति का ही उपदेश हो, वे ही सच्चे शास्त्र हैं। जो उपदेश तीर्थंकरों ने दिया, उसको सुनकर उनके मुख्य शिष्य गणधर ऋषि ने उसको बारह में ग्रन्थरूप रचा। उन श्रङ्गों के नाम ये हैं : (१) आचाराङ्ग - जिसमें मुनियोंका आचरण है। इस के १८००० पद हैं। + विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरतस्तपस्वी सः प्रशस्यते ॥ १० ॥ ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार ) भावार्थ - जो पाँचौ इन्द्रियों (स्पर्शन रसनादि ) की इच्छाओं से दूर है, आरम्भ व परिग्रह से रहित है, आत्मज्ञान व आत्मध्यान व तप में लोन है, वही तपस्वी गुरु है ।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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