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( ४४ ) मिथ्या-दर्शन, यह पाँच कर्म हैं। जव इन का असर हटता है, नब ही निश्चय-सम्यग्दर्शन हो जाता है। इस कार्य के लिए तत्वों का विचार उपयोगी है। मुख्यना से आत्मतत्व का विचार करने योग्य है। -
x धर्मः सम्यक्त्व मात्रामा शुद्ध स्वानुभवोऽथवा । तत्फलं सुखमत्यक्ष मक्षयं क्षायिकं चयत् ॥ ४३२ ॥
(पंचाध्यायी द्वि०) भावार्थ-सम्यग्दर्शनमई श्रात्मा हो धर्म है अथवा वह शुद्ध प्रात्माका अनुभव है। इसीका फल प्रात्मीक , अविनाशी सुख का लाभ है।
छप्पंचणव विहाणं अस्थाणं जिणवरो वइट्ठाणं । आणाए अहिगमेणय सहहणं होइ सम्मत्त ॥ ५६० ॥
(गोम्मटसार जीवकांड) भावार्थ-छा द्रव्य, पांच अस्तिकाय व नव पदार्थों का जैसा जिनेन्द्र भगवान ने उपदेश किया है उसी प्रमाण पोशा ले अथवा प्रमाण नय के द्वारा समझ कर श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है। इन सब का स्वरूप आगे कहा जायगा।
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ ४॥
[रत्नकरण्ड श्रावकाचार] भावार्थ-यथार्थ देव, शास्त्र, गुरु का तीन मूढ़ता और आठ मद छोड़कर व आठ अङ्ग सहित श्रद्धान करना सम्य. ग्दर्शन है।