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ऐसा मानने से ही यह आत्मा रागद्वेषी होता हुआ जब राग द्वेष अवस्था को छोड़ता है तब वीतरागी होकर, श्राप स्वय अशुद्धभावों से शुद्धभाव में बदल कर मुक्त होजाता है । नित्यानित्य मानने से ही यह कह सकते हैं कि श्रीमहावीर स्वामीका आत्मा जो गृहस्थ अवस्था में क्षत्री नाथवंशी था, सो अब सिद्ध परमात्मा होगया है । इसी तरह यदि पदार्थ में अपना भावपना तथा दूसरों का अभावपना न हो तो हम उस पदार्थ को दूसरों से भिन्न समझ ही नही सकते। हम जानते हैं कि हम अमरचन्द है किन्तु हम खुशालचन्द, दीनानाथ, कृष्णचन्द्र, लक्ष्मणलाल आदि नहीं हैं अर्थात् हमारे में अमरचन्दपने का भाव है, किन्तु खुशालचन्द आदि का अभाव है इस से हम भाव अभाव या अस्ति नास्ति स्वरूप एक ही काल में हैं । " हम आत्मा है", ऐसा तब ही कह सकते हैं, जब यह ज्ञान हो कि हमारे आत्मामे हमारी आत्मापने का अस्तित्व है, किन्तु अपनी श्रम के सिवाय अन्य सर्व श्रात्माओं का व नात्माओं का हम में नास्तित्व है । पदार्थ का सच्चा ज्ञान कराने के लिये यह सिद्धान्त दर्पण के समान है। जैसा श्री राजवार्तिक में कहा है
"स्वपरादाना पोहन व्यवस्था पाद्यंखलु वस्तुनो वस्तुत्वम्" भावार्थ वस्तु का वस्तुपना यही है जो अपनेपने को ग्रहण किये हुए है और तब ही परपने से रहित है ।
(१५) स्याद्वाद पर जैन विद्वानों का मत
कोई २ श्रजैन शास्त्रों में स्याद्वाद का ठीक स्वरूप