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भावार्थ - हे अर्हन् ! आप वस्तु स्वरूप धर्मरूपी बाणों को, उपदेश रूपी धनुषको तथा श्रात्म चतुष्टय रूप आभूषणों को धारण किए हो । हे श्रर्हन्! श्राप विश्वरूप प्रकाशक केवलज्ञान को प्राप्त हो । हे श्रर्हन् श्राप इस संसार के सब जीवोंकी रक्षा करते हो । हे कामादि को रुलाने वाले श्राप के समान कोई बलवान नहीं है।
नोट - इस मन्त्र में श्रहंत की प्रशंसा है, जो जैनियों के पाँच परमेष्ट्री में प्रथम है। श्रीनग्न साधु महावीर भगवानका नाम नीचे के मन्त्र में है :
अतिथ्य रूपं मासरं महावीरस्य नग्नहुः । रूप मुपसदा मेतत्तिस्रो रात्रीः सुरासुता ।
( यजुर्वेद अध्याय १६ मन्त्र १४ ) योग वासिष्ट ० १५ श्लोक ८ में श्री रामचन्द्र जी कहते है :
नाहं रामो न मे वांछा भावेषु च न मे मनः । शान्ति मास्थातु मिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ॥ भावार्थ न मैं राम हूँ, न मेरी वांछा पदार्थोंमें है । मैं तो जिन के समान अपने श्रात्मा में ही शान्ति स्थापित करना चाहता हूँ ।
बाल्मीकि रामायण १४ सर्ग बालकांड श्लोक १२ महाराज दशरथ ने श्रमणों को भोज दिया । श्रमण दि० जैन मुनि को कहते हैं "श्रमणाश्चैव भुञ्जते"
महाभारत बन पर्व
सरत चन्द सोम )
( श्रमणाः दिगम्बराः भूषण टीका ) ० १८३ पृ० ७२७ ( छुपी १६०७