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अप्रादुर्भावः खलुरागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिर्हि सेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥ - ( पुरुषार्थ सि० ) भावार्थ-निश्वयसे राग द्वेषादि भावोंका न होना श्रहिंसा है व उनका होना ही हिंसा है, यह जैनशास्त्रका सार है । भावहिंसा होकर अपने या दूसरे के द्रव्य प्राणों ( शरीर के अङ्गा दिकों) का घात करना स्रो द्रव्य हिंसा है। इसका पूर्णतया पालन वे साधु ही कर सकते हैं जो वैरागी है, जिनके उत्तम क्षमा है, जो समदर्शी है, जिनको कष्ट दिये जानेपर मी द्वेष नहीं होता है, वे पृथ्वी देखकर चलते हैं, सब तरह की घास आदि को भी कष्ट नहीं पहुंचाते हैं । गृहस्थी लोग "इस श्रादर्श पर पहुंचना चाहिये' ऐसा ध्यान में रखकर यथाशक्ति श्रहिसा का अभ्यास करते हैं। वे अपनी २ पदवी में रहकर उस पदवी के योग्य कार्यों में बाधा न आवे, ऐसा ध्यान में रखकर वर्तन करते हैं । इस भेद को समझने के लिये हिंसा के निम्न चार भेद है :
१. सङ्कल्पी (Intentional) जो हिंसा के ही इरादे से की जावे । जो मांसाहार के लिये व धर्म के नाम से शौकसे पशु मारते हैं वे संकल्पी हिंसा करते हैं। जैसे शिकार वेलना, पशुको बलि देना, कसाईखाने में वध करना ।
२. उद्यमी – जो क्षत्री, वैश्य, शूद्र के असि ( राज्य व