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गुरु आत्माही है । इस शिक्षाका भाव यह है कि यह आत्मा अपनेही परिणामोंसे पाप या पुण्यको बाँधकर आप अपने शुद्ध भावोसे पापोंका नाश कर व पुण्यको शीघू भोगकर मुक्त हो जाता है । जैन लोग जो परमात्माकी भक्ति व पूजा वन्दना करते हैं वह मात्र इसीलिये कि अपने भावों को निर्मल किया जावे, न कि इसलिये कि किसी परमात्मा को प्रसन्न किया जाये। जैसा कहा भी है किन पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे,
__ न निन्दया नाथ त्रिवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिन, पुनातु चित्तं दुरितां जनेभ्यः॥
-(स्वयम्भूस्तोत्र! भावार्थ-भगवन् ! आप वीतराग है, आपको हमारी पूजासे कोई सरोकार नहीं, आप वैर रहित हैं, आपको हमारी निन्दाले कोई दुख नहीं, तव भी आपके पवित्र गुणों का स्म. रण हमारे मनको पापके मैलों से पवित्र करता है।
जैन सिद्धान्त कहता है कि अहिंसा ही परम धर्म है और अहिंसा के दो भेद है-एक भाव-अहिंसा, दूसरा द्रव्यअहिंसा | राग, द्वेष, मोहादि भावों का न होना भाव अहिंसा है। जैसा कहा है कि