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(२१०) में जाना चाहिए । क्योंकि वहाँ जैन बस्ती बहुत है, वहाँ आहार आदि की कठिनता नहीं पड़ेगी। तब आधे सङ्घ ने तो आशा मानली, किन्तु आधे ने न मानी । वे श्राधे वही रहे। कालान्तर में दुष्काल पड़ने पर वे अपने साधुके चारित्र को न पाल सके। शिथिलतायें हो गई । वस्त्र कन्धे पर डालने लगे। भोजन लाकर एक स्थान पर खाने लगे। कुत्तों से बचने के लिए लाठी रखने लगे। उन को लोगों ने अर्द्धकालिक प्रसिद्ध किया।
दुष्काल बीतने पर जब मुनि संघ लौटा, तब बहुतों ने प्रायश्चित लेकर अपनी शुद्धि की। शेषों ने हठ किया। शिथिलाचार चलता रहा । विक्रम सम्बत् १३६ में श्वेत वस्त्र धारण करने से श्वेताम्बर नाम पड़ा। तब से जो प्राचीन निग्रंथ मतके अनुयायी थे उन्होंने अपने को दिगम्बर प्रसिद्ध किया अर्थात् जिनके साधुओं का दिशा ही वस्त्र है।
पहले श्वेताम्वरों की बहुत कम प्रसिद्धि रही । वीर सम्वत् ६०० के अनुमान गुजरात के बल्लभीपुर में श्रीयुत देवदिगण नाम के एक श्वेताम्बर प्राचार्य ने अपने यतियों की सभा करके प्राकृत भाषामें प्राचीन द्वादशांग बाणी के नाम से अपने आगरांग आदि ग्रन्थ बनाए । ये वे नहीं हैं जिनको १८००० श्रादि पदों में संकलन किया गया था। इन ग्रन्थों में इन्होंने बहुत सी बातें दिगम्बरों से भेद रूप सिद्ध की, जिनमें से कुछ ये हैं
१. सवस्त्र साधु होकर महाव्रत पालना।
२. भिक्षा मांग कर पात्र में लाना व एक नियत स्थान पर एक या अनेक दफे खाना ।