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८४. जैनियों में दिगम्बर या श्वेताम्बर भेद
यह पहिले ही कहा जा चुका है कि जैनधर्म अनादि है तथा इतिहासकी खोजके बाहर है। प्राचीन सनातन जैनमार्ग यही है कि इसके साधु नग्न होते हैं तथा जहांतक वस्त्र त्याग नहीं करसकते थे, वहां तक ग्यारह प्रतिमा रूप श्रावकका व्रत पालन होता था ।
श्री ऋषभ देव से श्री महावीर तक बराबर यही मार्ग जारी था। श्री महावीर के समय में जैन मत को निर्ग्रन्थ मत कहते थे, जैसा बौद्धों की प्राचीन पुस्तकों से प्रगर है । उस समय दिगम्बर या श्वेताम्बर नाम प्रसिद्ध नहीं थे । सम्वत् रहिन प्राचीन जैन मूर्तियां जो विक्रम सम्वत् के पूर्व की या चतुर्थ काल की समझी जाती हैं ( जब लेख लिखनेका रिवाज न था ) सब नग्न ही पाई जाती हैं।
श्री सम्मेद शिखर के पास पालगंजमें जो दिगम्बर जैन मन्दिर है उस में श्री पार्श्वनाथ की मूर्ति ऐसी ही है। बिहार के मानभूम जिले में देवलदान ग्राम में जो प्राचीन दिगम्बर जैन मन्दिर है उस में मुख्य ऋषभदेव की अन्य तीर्थङ्कर सहित मूर्ति सम्वत् रहित बहुत प्राचीन नग्न हीं है।
श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली के समय में महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य में (सन् ई० से ३२० वर्ष पहिले) मध्य देश में १२ वर्ष का दुष्काल पडा । दुष्काल के प्रारम्भ में ही श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली ने, जो २४००० शिष्यों सहित वहाँ मौजूद थे, सर्व संघको यह आशा दी कि इस समय सर्व सङ्घ को दक्षिण