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( १९२ ) ने व्यापारी के रूप में बड़े स्वादिष्ट अपूर्व फल खाने को दिये। जब वे फल न रहे, तब चक्रीने और मांगे। व्यापारीने कहा कि ये फल एक द्वीप में मिल सकेंगे। आप जहाज़ पर मेरे साथ चलिये। वह लोलुपी चल दिया । मार्ग में उस देव ने जहाज़ को डबो दिया और चक्रवर्ती खोटे ध्यान से मर कर सातवें नर्क गया।
(8) नौवें चक्री १४ वे तीर्थकर मल्लिनाथ के समय में काशीनगरी के स्वामी इक्ष्वाकुवंशीय पद्मनाथ और ऐराराणी के सुपुत्र पद्म थे। बादलों को नष्ट होते देखकर वैरागी होगये और साधु होकर मोक्ष पधारे।
(१०) दसवें चक्री श्री हरिषेण भगवान मुनिसुव्रतनाथ के काल में भोगपुर के राजा इक्ष्वाकुवंशीय पद्म और ऐरादेवी के सुपुत्र थे। आकाश में चन्द्र ग्रहण देख आप साधु हो गये तथा अन्त में सर्वार्थसिद्धि गये, मोक्ष न जा सके।
(११) ग्यारहवें चक्रवर्ती जयसेन श्री नेमिनाथ तीर्थहर के समय में वत्सदेश के कौशाम्बी नगर के इक्ष्वाकुवंशी राजा विजय और रानी प्रभाकारी के पुत्र थे । एक दिन आकाशमें उल्कापात देखकर वैराग्यवान हो साधु होगये। तप करते हुए अन्त में श्री सम्मेद शिखर पर पहुँचे। वहां चारण नाम की चोटी पर समाधिमरण कर सर्वार्थ सिद्धि में जा अहमिन्द्र हुए । एक जन्म मनुष्य का और ले मोक्ष पधारेंगे ।
(१२) श्री नेमिनाथ के समयमें १२ वां चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त हुआ। यह ब्रह्मा राजा वरानी चूल देवी का पुत्र था। यह विषय भोगों में फंसा रहा। अन्त में मर कर सात नर्क गया।