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________________ (११) नामकर्मबांधकर १३ वे स्वर्ग में इन्द्र हुये थे। वहां से प्राकर काशी दशके वनारस नगरके काश्यप गोत्रीय राजा विश्वसेन की रानी ब्रह्मादेवी के गर्भ में वैशाख बदी २ को पधारे। पौष बदी ११ को प्रभु जन्मे, तब इन्द्र ने उत्सव किया। १६ वर्ष की उम्र में एक दिन बन विहार को गये, वहाँ महीपाल राजा अजैन तापसी पंचाग्नि तप लकडी जलाकर कर रहा था। वह एक लकड़ी को चीरने के लिये लकड़ी में कुल्हाड़ी मारने ही वाला था कि भगवान ने अवधिज्ञान से यह जानकर कि इसके भीतर सर्प सर्पिणी है, उसे काटने के लिये मना किया । उसने बचन न माना । लकड़ी पर चोट पड़ते ही दोनों प्राणी घायल हो गये तब भगवान के साथ जो अन्य राजकुमार थे, उन्होंने इनको धर्मोपदेश सुनाया, जिससे वे शान्तभाव से मरकर भवनवासी देवों में धरणेन्द्र व पद्मावती हुए। यह तपसी पूर्व जन्मों में प्रभु के जीव का वैरी था । यहाँ भी इसको इस कृत्य से लज्जित होना पड़ा। इस कारण इसके हृदय में शत्रुता का भाव और भी ज्यादा बढ़ गया। अन्त में मर कर पचाग्नि तप के कारण ज्योतिषदेव हुआ। ३० वर्ष तक प्रभुकुमारावस्थामें रहे । एक दिन अयोध्या के राजा जयसेनने कुछ भेटे प्रभु को भेजी, तब दूतले भगवान ने उस नगर का हाल मालूम किया। वह उस नगर में उत्पन्न हुए श्री ऋषभदेव आदि महापुरुषों का वर्णन करने लगा। यह सुनकर प्रभु को अपना भी ध्यान हो पाया कि मैं भी तो तीर्थकर ही हूँ। अभी तक क्यों गृह के मोह में फँसा हूँ १ऐसा सोचकर आप भी वैराग्यवान् हो गये और रीतिवत् पौप कृष्ण ११ को अश्ववन में तप धारण कर लिया।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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