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________________ (१६१) [२६] स्वगुरुस्थानसंक्रांति-आचार्य पदवी स्वी. कार करना। [३०] निसंगत्वात्म भावना--आचार्य पदवी शिष्य को देकर आप अकेले विहार करना। [३१] योग निर्वाण संपाति-मनकी एकाग्रता का उद्यम करना। [३२] योग निर्वाण साधन-आहारादि त्याग समाधिमरण करना। 1] इन्द्रोपपाद-मरण करके इन्द्र पद पाना। [३४] इन्द्राभिषेक---इन्द्रासन का न्हवन होना। [३५] विधि दान-दूसरों को विमान ऋद्धि आदि देना। [३६] मुखोदय---इन्द्रपद का सुख भोगना। * [३७] इन्द्र पद त्याग-इन्द्र पद त्यागना। [३८] गोवतार-तीर्थकर होने के लिये माँ के गर्भ में आना। [३81 हिरण्यगर्भ-गर्भमे आने के कारण छः माल पहले से रत्नवृष्टि होना। [४०] मन्दरेन्द्राभिषेक-तीर्थङ्कर का जन्म हो कर सुमेरु पर अभिषेक। नन-तीथङ्कर को गुरु मान इन्द्रादि देव पूजते है।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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