________________
(१५७) हाथ में जो रखा जावे उसे ही जीमते है । स्वयं मस्तक, दाढी मूछ के केशों को उखाड डालते हैं।
जब लंगोटी भी छोड़ दी जाती है तव साधुके २८ मूल गुण धारण किये जाते हैं जिन का वर्णन नं० ६५ में किया जा चुका है।
इन ग्यारह प्रतिमाओं में आत्मध्यान का अभ्यास बढ़ाया जाता है तथा इससे धीरे २ उन्नति होती जाती है। +
७१. जैनियों के संस्कार जिन क्रियाओं से धर्म का संस्कार मानव की बुद्धि पर पड़े ऐसे संस्कार श्री महापुराण [जिनसेनाचार्य कृत] १० ३८,३६,४० में है।
सन्तान को योग्य बनाने के लिये इनका किया जाना अति आवश्यक है । जो जन्म के जैनी हैं, उनके लिये कन्वय क्रियाएँ ५३ बताई गई हैं तथा जो मिथ्यात्व छोड़ कर जैनी वनते है, उनके लिये दीक्षान्वय नाम की ४८ क्रियाएँ हैं।
इन क्रियाओं में प्रायः पंच परमेष्ठी का पूजन, होम, विधानादि होता है, हम उनका यहाँ नीचे बहुत संक्षेप में भाव दिखलाते हैं।
+ दसणवय सामायिय पोसह सच्चित्तराय भत्तेय । वहारमपरिग्गह अणुमण मुहिट देस विरदेदे ॥२॥ (कुन्दकुन्डे. कृतद्वादशानुप्रेता) श्रावक पदानि देवैरेकादशदेशितानियेपखलु । स्वगुणाः पूर्व गुणैः सह संतिष्ठते क्रम विवृद्धाः ॥१३६॥
[विशेष देखो रत्नकरण्ड श्लोक १३७ से १४७]
-