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________________ ( १५५ ) यहाँ त्याग है। सचित्त के व्यवहार का व सचित्त को चित्त करने का त्याग नहीं है। सचित्त को चित्त बनाने की रीति यह है- सुक्कं पक्कंतप्त वललवणेहिं मिस्लियदत्रं । जं जं तेराय छराणं तं सव्यं पातुयं भणियं ॥ अर्थात् - सूखी, पकी, गर्म, खटाई या नमक से मिली हुई तथा यन्त्र से छिन्न भिन्न की हुई वस्तु प्राशुक है । पानी में लव आदि का चूरा डालने से यदि उसका वर्ण, रस बदल जावे तो वह अचित्त होता है। पके फल का गूदा प्राशुक है। बीज सचित है । इस में भोगोपभोग के ५ दोष बचाना चाहिये । (६) रात्रि भुक्तित्याग प्रतिमा - रात्रिको जलपान व भोजन न आप करना, न दूसरों को कराना। दो घडी अर्थात् ४८ मिनट सूर्यास्त से पहले तक व ४८ मिनट सूर्योदय होने पर भोजन पान करना, रात्रि को भोजन सम्बन्धी श्रारम्भ भी नहीं करना, पूर्ण सन्तोष रखना । (७) ब्रह्मचर्य प्रतिमा - अपनी स्त्री भोग का भी त्याग कर देना । उदासीन वस्त्र वैराग्य भावना में लीन रहना । पहनना, (८) आरम्भत्याग प्रतिमा कृषि वाणिज्य आदि व रोटी बनाना श्रादि श्रारम्भ विल्कुल छोड़ देना, अपने पुत्र व अन्य कोई भोजन के लिये
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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