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(१४७) (२) निकांक्षित-भोगों को अतृप्तिकारी व क्षणभगुर व बन्ध का कारण जान कर उनकी अभिलापान करना।
(३) निर्विचिकित्सा-दुाखी व मलीन, चेतन व अत्रे. तन वस्तु पर घृणा न करना।
(४) अमूढष्टि-मूर्खता से देखा देखी कोई अधर्म क्रिया धर्म जान कर न करना।
(५) उपगृहन-दूसरों के औगुण न प्रकट करना।
(६) स्थितिकरण-धर्म में आप को व दूसरों को दृढ़ करना।
(७) वात्सल्य-धर्म व धर्मात्मा में प्रेम रखना। (८) प्रभावना-धर्म की उन्नति करना ।
इन पाठ का न पालना सोपाठ दोष तथा जाति (माता का कुटुम्ब ),कुल, धन, वल, रूप, विद्या, अधिकार तथा तप, इन का अभिमान करना, ऐसे पाठ दोष
देव. गुरु और लोक की मूढता, ऐसी तीन मूढ़ता अर्थात् लोगों की देखा देखी जो देव व गुरु नहीं हैं उनको मानना व जो क्रिया करने योग्य नहीं है, उन को करना । खड्ग, कलम दावात आदि पूजना।
कुदेव कुगुरु और कुशास्त्रों की तथा इन के सेवकों की सङ्गति रखना, यह छः अनायतन । ऐसे २५ दोष दूर रख कर निर्मल श्रद्धा रखनी चाहिये। नीचे लिखे लात व्यसन आदि अतीचार सहित दूर कर देना :--
१. जूआ न बदकर खेलना न भूठा ताश, चौपड़ आदि खेलना।