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यदि दान में चौथाई न कर सके तो छठा करे या कम से कम दसवाँ भाग अलग करे व उसे श्रावश्यकतानुसार चार दानों में व अन्य धर्म कार्यों में ख़र्च । *
साधारण गृहस्थों को इन आठ वातों का भी त्याग करना चाहिये । ये गृहस्थ के ८ मूलगुण है
१ मद्य, २ मांस, ३ मधु, ४ स्थूल (संकल्पो) त्रसहिंसा, ५ स्थूल असत्य ६ स्थूल चोरी, ७ स्थूल कुशील, स्थूल परिग्रह |
स्थूल से प्रयोजन न्याययुक्त का है। गृहस्थी मांसाहार व धर्म व शौक आदि से पशुओं को नहीं मारता है। असि ( शस्त्र कर्म ), मसि ( लिखना ), कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या या पशुपालन, इन छः कारणों से पैसा कमाता है। इन में जो हिंसा होती है वह संकल्पी नहीं है श्रारम्भी है, उसकी गृहस्थी बचा नहीं सकता, ता भी यथाशक्ति बचाने का ध्यान रखता है ।
गृहस्थी राज्य कर सकता है, दुष्टों व शत्रुओं को दराड दे सकता है व उन से युद्ध कर सकता है ।
राजदण्ड व लोकदण्ड हो ऐसा झूठ बोलता नहीं व ऐसी चोरी करता नहीं, अपनी विवाहिता स्त्री में सन्तोष रखता है, अपनी ममता घटाने को सम्पत्ति का परिमाण कर लेता है कि इतना धन हो जाने पर मैं स्वयं सन्तोष करके धर्म व परोपकार में जीवन बिताऊँगा ।
* देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्याय संयमस्तप । दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने ॥ ७ ॥ पद्मनंद पच्चीशिका श्रावकाचार ]