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________________ (१४० ) इस में +५+७+७+8=31 अक्षर हैं तथा ११+8 +११+१२+१६५६ मात्राएं हैं। इसका अर्थ है लोक में सब अरहनों को नमस्कार हो, सर्व सिद्धों को नमस्कार हो, सर्व प्राचार्यों को नमस्कार हो, सर्व उपाध्यायों को नमस्कार हो, सर्व साधुओं को नमस्कार हो। इस जगत में सबसे अधिक माननीय ये ही पांच पद है। अरहंत शरीर सहिन परमात्मा हैं जिन का गुणस्थान १३ वां व १४ वा है । सिद्ध शरीर रहित परमात्मा हैं। प्राचार्य दीक्षा दाता गुरु व उपाध्याय ज्ञान दाता मुनि, ये दोनों छठे सातवे गुणस्थान में होते है। इनके सिवाय मात्र साधने वाले छटे से १२३ गुणस्थान तक साधु कहलाते हैं। बड़े २ इंद्रादि देव व चक्रवर्ती भी इनके चरणों को नमस्कार करते हैं। यह मन्त्र १०८ दफ़े जपा जाता है, क्योंकि १०८ प्रकार ही जीवों के बन्ध के आधार-भाव हुआ करते हैं । किसी काम का विचार करना संरम्भ है, उसका प्रबंध समारंभ है, उस को शुरू कर देना प्रारम्भ है। हर एक मन, वचन, काय द्वारा हो सकते हैं, इससे नौ भेद हुए । इन नौ को स्वयं करना, कराना व किसी ने किया हो उस का अनुमोदन करना, इससे २७ भेद हुए। हर एक क्रोध, मान, माया, लोभ से होते है, इस तरह १०८ भेद हुए। ___माला में १११ दाने होते हैं,। तीन दाने सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के सूचक होते हैं। जप करते हुए १०८ दफ़े मन्त्र जपते है। एक एक दाने पर पूर्णमन्त्र फिर तीन दानों पर सम्यग्दर्शनायनमः, सम्यग्ज्ञानायनमः, सम्यक् चारित्रायनमः कहते हैं।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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