________________
का पहला पदही परमात्माको नमस्कारवाचक है, जैसे "णमो अरहंताण जैनलोग आत्मा, परमात्मा, पुण्य,पाप,यहलोक, परलोक, पुण्य-पापका फल, सुख,दुःख, संसार व मोक्ष मानते है। इसलिये उनको नास्तिक कहना विलकुल अनुचित है। जैनियों के मन्दिरों में कोई ऐसी बात नहीं है, जिससे कोई हानि हो सके, यदि कोई निर्मल दृष्टिसे देखेगा तो उसको जैनमंदिरों में बहुत अधिक शांति और वैराग्य का दृश्य मिलेगा।
आप किसी भी जैनमन्दिरमें चले जाइये, वहाँ वेदी पर उन महानपुरुषों की ध्यानमई मूर्तियाँ मिलेंगी, जो परमात्मापद पर पहुँचे हैं । इनको तीर्थकर कहते हैं । उनके दर्शनसे सिवाय शांति और वैराग्य के कोई और भाव दर्शक के चित्त में हो ही नहीं सकता है । भगवद्गीता अ०६ में जिस योगाभ्यास की मुर्तिका वर्णन किया है वैसी ही मूर्ति जैनमन्दिरों में होती है।
लिखा है कि:-- समंकाय शिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। सम्मेच्य नासिका स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥१३॥ प्रशान्तात्मा विगतभी मगरिव्रतेस्थितः। मनः संयम्य मचितो युक्त आसीत मत्परः ॥१४॥ युञ्जन्नेव सदात्मानं योगी नियत मानसः । शांति निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ।।१५।।
भावार्थ-शरीर, मस्तक और गर्दन सीधी रख, निश्चल हो इधर उधर न देखते हुए, स्थिर मन ले नासिका के अप्रभाग के ऊपर अच्छी तरह दृष्टि रख, अन्तःकरणको अति निर्मल