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का फल देता है न पुण्य का; अज्ञान से शान ढका है, इसी से जगत् के प्राणी मोही हो रहे हैं।
"बस यही मान्यता जैनियोकी भी है । वे कहते हैं कि ये जीव ापही अपने भावोंसे पाप पुण्य कर्म वाँध लेते हैं व श्राप ही उनका फल भोग लेते हैं। जैसे कोई प्राणी आप ही मदिरा पीता है, पापही उसका बुरा फल भोगता है। परमात्मा इन प्रपंच जालों में नहीं पडता-यदि वह जगत् के प्रपंच में बुद्धि लगावे तो नित्य सुखी व तृप्त व कृतार्थ नहीं रहसकता है। जैन लोग जगत् को अनादि अनंते मानते हैं और कहते हैं कि यह जगत् चेतन अचेतन पदार्थों का समुदाय है। जव यह पदार्थ मूलमें सदाले हैं व सदा रहेंगे, तब यह जगत भी सदा से है व सदा रहेगा-सत् का विनाश नहीं, असत् का जन्म नहीं। कहा है कि-Nothing is destroyed nothing is created अर्थात्-'न कुछ नष्ट होता है न बनता है, केवल अवस्थाएं बदलती हैं। यह जो वैज्ञानिक मत ( Scientific view ) है, वही जैनियों का मत है । परमात्मा या परमपद का धारी परम
आत्मा, इच्छारहित, कृतकृत्य, शरीररहित व करने कराने के विकल्पोले रहित है। इससे वह न जगतको चनाता है न बिगा इता है । जगत् में बहुत से कामतो बिना चेतनके निमित्त बने हुये केवल योही जड़ निमित्तों के मिल जाने से होते हैं, जैसे मेघ बनना, पानी बरसना आदि । बहुत से कामों को संसारी अशुद्ध जीव निरन्तर किया करते हैं। जैसे घोसला बनाना आदि । शुद्ध प्रभु इन झगड़ों में नहीं पड़ता है।
जैनलोग परमात्मा को मानते है, इसीलिये वे पूजा व । भक्ति अनेक प्रकारले करते हैं। उनका जो प्रसिद्ध मन्त्र है उस