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( १०३) सदा करते रहना चाहिये अर्थात् वीतराग मई जैनधर्म का साधन करते रहना चाहिये । इससे हम अपने फल देने वाले देव को बुरे से अच्छा कर सकेंगे व बहुत से पापों का नाश भी कर सकेंगे। धर्म पुरुषार्थले हमें कभी बेख़बर न रहना चाहिए।
४३. संवर तत्व ___ हम पानव और बन्धतत्व के कथन में यह बात दिखा चुके हैं कि आत्मा किस तरह अशुद्ध या वद्धहुश्रा करताहै। श्रव यह उपाय बतलाना है कि हम बंधनले मुक्त कैसे हो । जैसे नाव में पानी जिस छेद से आता हो उसको बन्द करने से पानी न श्रावेगा, वैसे जिन भावों से कर्म आते है उन को रोक देने से कर्म न पावेंगे । इस लिये जिन भावों से प्रानव भावों को रोका जाता है वह भाव संवर हैं और वर्गणाओं का रुकजाना सो द्रव्य संवर है। _सामान्य से मिथ्यात्व के रोकने के लिये सम्यग्दर्शन, अविरति के हटाने के लिये व्रतों का पालन, प्रमाद इटाने के लिये अप्रमत्तं भाव, कषाय के दूर करने के लिए वीतरागभाव, योग चंचलताके मिटाने के लिये मन, वचन, काय का निरोध, भाव संवर है।
विशेषता से भाव संवर पांच व्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, दशलाखण धर्म, बारह भावना, वाईस परीषह जीतना
चेदण परिणामो जो कम्मस्लासवणिरोहणे हेऊ । सो भावसंवरो खलु दबासवरोहणे अण्णो ॥ ३४ ॥
[द्रव्यसंग्रह ]
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