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(१०२) है । शानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का कुछ न कुछ असर सब जीवों के कम रहता है अर्थात् इन का क्षयोपशम होता है। इस लिए आत्मा में ज्ञान, दर्शन, वीर्य की थोड़ी या अधिक प्रगटता रहा करती है । यही पुरुषार्थ है । अज्ञानी के मोहनीय कर्म दबता नहीं है। ज्ञानी के जितना दवता व नाश होता है उतना निर्मल श्रद्धान व शान्तभाव अर्थात् सम्यक्त्व व चारित्र गुण आत्मा का प्रगट होता है । यह भी पुरुषार्थ है।
__चार अघातिया कर्म जब तक बिल्कुल नाश नहीं होते, फल ही देते रहते हैं। इस लिए वे विल्कुल देव कहलाते हैं।
हमारा कर्तव्य यह है कि जितना ज्ञान व आत्मवल हमारा प्रगट है उससे विचार कर हम व्यवहार करें। जैसे 'हमने किसी व्यापार को विचार के साथ किया: उस में यदि •साता वेदनीय का उदय होगा व अन्तराय का न होगा तो धन का समागम होजायगा । यदि लाभ न हो तो समझना चाहिये कि असातावेदनीय और अन्तराय कर्म रूपी देव का फल है। अपना पुरुषार्थ न करके दैव के भरोसे बैठना मूर्खता है, क्यों कि अघातिया कर्म निमित्त होने पर ही अपना फल दे सकते है। यदि हम कोई व्यापार न करें, खाली बैठे रहे तो सातावेदनीय से जो धन आता सो बिना कारण के नहीं सकेगा। एक बात याद रखना चाहिये कि जिस किसी के बहुत तीव पुण्य व पाप कर्म का उदय होता है उसके अकास्मात् लाभ या अलाभ भी हो जाता है। जैसे कोई वालक गरीब के यहाँ पैदा हुआ और किसी धनवान की गोद चला गया व धनवान के यहां पैदा हुआ और पैदा होते ही पिता निर्धन होगया।
अपने भावों को कपाय रहित करने का पुरुषार्थ हमको