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कम का रूप होकर ठहर जाने की द्रव्यबन्ध कहते हैं
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इस बंधके चार भेद है । ( १ ) प्रकृति बंध जो कर्म है उनमे अपने काम करनेका स्वभाव पड़ना । ऐसी प्रकृतियां मूल आठ है व उनके भेद १४८ हैं । (२) प्रदेशबंध जो कर्म जिस प्रकृतिके बँधे उनमें वर्गणाओं की संख्या होना । ( ३ ) स्थिति बंध-कर्मों का बंध किसी काल की मर्यादा के लिए होना । ( ४ ) अनुभाग बन्ध--- फल देते समय तीव्र या मन्दफल देना । मन, वचन, काय योगी के निमित्ति से आत्मा के सकम्प होते हुए योग शक्ति के द्वारा तो पहिले दो वन्ध और क्रोधादि कषाय की तीव्रता या मन्दता के अनुसार पिछले दो बन्ध होते हैं। 1
३६. आठ कर्म प्रकृति व १४८ भेद
मूल कर्म प्रकृतियां आठ है- ( १ ) ज्ञानावरण जो आत्मा के ज्ञान गुणको ढके ( २ ) दर्शनावरण जो आत्मा के दर्शन ( सामान्यपने देखने ) गुण को ढके ( ३ ) वंदनीय जो सांसारिक सुख दुःखों की सामग्री जोड़कर सुख दुःख का
* वज्भदि कम्म जेण दु वेदरा भावेण भाववंधांसी । surender rootबेसणं इतरो ॥ ३२ ॥ + पडिदि श्रणुभाग पदेसमेदा दु चदुविधा बन्धो । जोगा पडदेसा ठिदिअणुभागा कलायदो होति ॥ ३३ ॥ ( द्रव्यसंग्रह )