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है । संसारी जीव कर्म-बन्ध के निमित्त से रागद्वेषादि विभाव भावों में परिणमन कर जाते हैं। जैसे स्फटिक मणि लाल, पीले डांक के सम्बन्ध से लाल, पीले रङ्ग रूप परिणमन कर जाती है तथा पुद्गल जीव के रागद्वेषादिभावों का निमित्त पाकर आठ कर्मरूप होजाते हैं व पुद्गल के परमाणु चिकना पन, रूखापन तथा परस्पर मिलने रूप कारणों से स्कन्ध रूप होजाते हैं। स्कन्ध टूटकर फिर परमाणु होजाते हैं । इस तरह जीव पुद्गल में ही विभावपना होता है, शेष चार द्रव्य अपने स्वभावमें ही स्वभावरूप सदृश परिणमन करते हुए ही रहते है । यदि जीव पुद्गलमें विभावरूप होनेकी शक्ति नही होतो तो संसार न होता । न संसार का त्याग कर मोक्ष होता
* प्रदेश जावदियं श्रायासं श्रविभागी पुग्गलाणु बहुद्धं । तं खु पदेसंजाणे सव्वाणादापरिहं ॥ २७॥ भावार्थ - जितने आकाशको श्रविभागी पुद्गल परमाणु घेरे, उसको प्रदेश जानो । इस में सूक्ष्म अनेक परमाणु भी समा सकते हैं। जैसे जहाँ एक दीप प्रकाश हो, वहाँ अनेक दीप प्रकाश भी समा सकते हैं।
प्रदेश की संख्या:--
होति श्रसंखा जीवे धम्माधम्मे अत श्रायासे । मुत्ते तिविह पदेसा कालस्लेगो ण तेरा सो काचो ||२५|| भावार्थ - एक जीव, धर्म, धर्म में असंख्य, आकाश में अनन्त, पुद्गल में तीन प्रकार प्रदेश होते हैं। काल का एक ही प्रदेश है इससे काय नहीं है ।
( द्रव्य संग्रह )