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________________ लोकव्यवस्था शुद्ध स्वभावरूप परिणमन करते हैं। इनमें पूर्व पर्याय नष्ट होकर भी जो नयी उत्तर पर्याय उत्पन्न होती है वह सदृश और स्वभावात्मक ही होती है, उसमें विलक्षणता नहीं आती। प्रत्येक द्रव्यमें एक 'अगुरुलघु' गुण या शक्ति है, जिसके कारण द्रव्यको समतुला बनी रहती है, वह न तो गुरु होता है और न लघु । यह गुण द्रव्यकी निजरूपमें स्थिर-मौलिकता कायम रखता है। इसी गुणमें अनन्तभागवृद्धि आदि षड्गुणी हानि-वृद्धि होती रहती है, जिससे ये द्रव्य अपने ध्रौव्यात्मक परिणामी स्वभावको धारण करते हैं और कभी अपने द्रव्यत्वको नहीं छोड़ते। इनमें कभी भी विभाव या विलक्षण परिणमन नहीं होता और न कहने योग्य कोई ऐसा फर्क आता है, जिससे प्रथम क्षणके परिणमनसे द्वितीय क्षणके परिणमनका भेद बताया जा सके । परिणमनका कोई अपवाद नहीं : यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जब अनादिसे अनन्तकाल तक ये द्रव्य सदा एक-जैसे समान परिणमन करते हैं, उनमें कभी भी कहीं भी किसी भी रूपमें विसदृशता, विलक्षणता या असमानता नहीं आती तब उनमें परिणमन अर्थात् परिवर्तन कैसे कहा जाय ? उनके परिणमनका क्या लेखा-जोखा हो ? परन्तु जब लोकका प्रत्येक 'सत्' सदा परिणामी है, कूटस्थ नित्य नहीं, सदा शाश्वत नहीं; तब सत्के इस अपरिहार्य और अनिवार्य नियमका आकाशादि 'सत्' कैसे उल्लंघन कर सकते हैं ? उनका अस्तित्व ही त्रयात्मक अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है। इसका अपवाद कोई भी सत् कभी भी नहीं हो सकता। भले ही उनका परिणमन हमारे शब्दोंका या स्थूल ज्ञानका विषय न हो, पर इस परिणामित्वका अपवाद कोई भी सत् नहीं हो सकता। - तात्पर्य यह है कि जब हम एक सत्-पुद्गलपरमाणुमें प्रतिक्षण परिवर्तनको उसके स्कन्धादि कार्यों द्वारा जानते हैं, एक सत्-आत्मामें ज्ञानादि गुणोंके परिवर्तनको स्वयं अनुभव करते हैं तथा दृश्य विश्वमें सत्की उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यशीलता प्रमाणसिद्ध है; तब लोकके किसी भी सत्को उत्पादादिसे रहित होनेकी कल्पना नहीं की जा सकती। एक मृत्पिड पिंडाकारको छोड़कर घटके आकारको धारण करता है तथा मिट्टी दोनों अवस्थाओंमें अनुगत रहती है। वस्तुके स्वरूपको समझनेका यह एक स्थूल दृष्टान्त है। अतः जगत्का प्रत्येक सत्, चाहे वह चेतन हो या अचेतन, परिणामी-नित्य है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला है। वह प्रतिक्षण पर्यायान्तरको प्राप्त होकर भी कभी समाप्त नहीं होता, ध्रुव है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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