SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय प्रवेश अभेद तक जा पहुँचता है । संग्रहनय जब तक द्रव्यकी दो पर्यायोंमें अभेदको विषय करता है यानी वह एक द्रव्यगत अभेदकी सीमामें रहता है तब तक उसकी वस्तु सम्बद्धता है। पर जब वह दो द्रव्योंमें सादृशमूलक अभेदको विषय कर आगे बढ़ता है तब उसकी वस्तुमूलकता पिछड़ जाती है। यद्यपि एकका दूसरेमें सादृश्य भी वस्तुगत ही है पर उसकी स्थिति पर्यायकी तरह सर्वथा परनिरपेक्ष नहीं है। उसकी अभिव्यंजना परसापेक्ष होती है । जब यह संग्रह 'पर' अवस्थामें पहुँच कर 'सत्' रूपसे सकल द्रव्यात एक अभेदको 'सत्' इस दृष्टिकोणसे ग्रहण करता है तब उसकी कल्पना चरम छोर पर पहुँच तो जाती है, पर इसमें द्रव्योंकी मौलिक स्थिति धुंधली पड़ जाती है। इसी भयसे जैनाचार्योंने नयके सुनय और दुर्नय ये दो विभाग कर दिये हैं । जो नय अपने अभिप्रायको मुख्य बनाकर भी नयान्तरके अभिप्रायका निषेध नहीं करता वह सुनय है और जो नयान्तरका निराकरण कर निरपेक्ष राज्य करना चाहता है वह दुर्नय है । सुनय सापेक्ष होता है और दुनंय निरपेक्ष । इसीलिये सुनयके अभिप्रायकी दौड़ उस सादृश्यमूलक चरम अभेद तक हो जाने पर भी, चूंकि वह परमार्थसत् भेदका निषेध नहीं करता, उसकी अपेक्षा रखता है, और उसकी वस्तुस्थितिको स्वीकार करता है, इसलिये सुनय कहलाता है। किन्तु जो नय अपने ही अभिप्राय और दृष्टिकोणकी सत्यताको वस्तुके पूर्णरूपपर लादकर अपने साथी अन्य नयोंका तिरस्कार करता है, उनसे निरपेक्ष रहता है और उनकी वस्तुस्थितिका प्रतिषेध करता है वह 'दुर्नय' है; क्योंकि वस्तुस्थिति ऐसी है ही नहीं । वस्तु तो गुणधर्म या पर्यायके रूपमें प्रत्येक नयके विषयभूत अभिप्रायको बस्त्वंश मान लेनेकी उदारता रखती है और अपने गुणपर्यायवाले वास्तविक स्वरूप के साथ ही अनन्तधर्मवाले व्यावहारिक स्वरूपको धारण किये हुए है। पर ये दुर्नय उसकी इस उदारताका दुरुपयोग कर मात्र अपने कल्पित धर्मको उसपर छा देना चाहते हैं । _ 'सत्य पाया जाता है, बनाया नहीं जाता।' प्रमाण सत्य वस्तुको पाता है, इसलिये चुप है। पर कुछ नय उसी प्रमाणकी अंशग्राही सन्तान होकर भी अपनी वावदूकताके कारण सत्यको बनानेकी चेष्टा करते हैं, सत्यको रंगीन तो कर ही देते हैं। जगत्के अनन्त अर्थोंमें वचनोंके विषय होनेवाले पदार्थ अत्यल्प हैं। शब्दकी यह सामर्थ्य कहाँ, जो वह एक भी वस्तुके पूर्ण रूपको कह सके ? केवलज्ञान वस्तुके अनन्तधर्मोको जान भी ले, पर शब्दके द्वारा उसका अनन्तबहुभाग अवाच्य ही रहता है। और जो अनन्तवाँ भाग वाच्यकोटिमें है उसका अनन्तवाँ भाग शब्दसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy