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________________ जैनदर्शन स्वावलम्बिनी तथा निर्दोष हो जाती है कि उसमें प्राणिघातकी कम-से-कम सम्भावना रहती है। जैन श्रुत: वर्तमानमें जो श्रुत उपलब्ध हो रहा है वह इन्हीं महावीर भगवान्के द्वारा उपदिष्ट है। इन्होंने जो कुछ अपनी दिव्य ध्वनिसे कहा उसको इनके शिष्य गणधरोंने ग्रन्थरूपमें गूंथा। अर्थागम तीर्थंकरोंका होता है और शब्द-शरीरको रचना गणधर करते हैं। वस्तुतः तीर्थंकरोंका प्रवचन दिनमें तीन बार या चार बार होता था। प्रत्येक प्रवचनमें कथानुयोग, द्रव्यचर्चा, चारित्र-निरूपण और तात्त्विक विवेचन सभी कुछ होता था। यह तो उन गणधरोंकी कुशल पद्धति है, जिससे वे उनके सर्वात्मक प्रवचनको द्वादशांगमें विभाजित कर देते हैं-चरित्रविषयक वार्ताएँ आचारांगमें, कथांश ज्ञातृधर्मकथा और उपासकाध्ययन आदिमें, प्रश्नोत्तर व्याख्याप्रज्ञप्ति और प्रश्नव्याकरण आदिमें । यह सही है कि जो गाथाएँ और वाक्य दोनों परम्पराके आगमोंमें हैं उनमें कुछ वही हों जो भगवान् महावीरके मुखारविन्दसे निकले हों। जैसे समय-समयपर बुद्धने जो मार्मिक गाथाएँ कहीं, उनका संकलन 'उदान' में पाया जाता है। ऐसे ही अनेक गाथाएँ और वाक्य उन प्रसंगोंपर जो तीर्थंकरोंने कहे वे सब मूल अर्थ ही नहीं, शब्दरूपमें भी इन गणधरोंने द्वादशांगमें गूंथे होंगे। यह श्रुत अङ्गप्रविष्ट और अङ्गबाह्य रूपमें विभाजित है। अङ्गप्रविष्ट श्रुत ही द्वादशांग श्रुत है। यथा आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदश, अन्तकृद्दश, अनुत्तरौपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र, और दृष्टिवाद । दृष्टिवाद श्रुतके पाँच भेद. हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत, और चूलिका । पूर्वगत श्रुतके चौदह भेद हैं-उत्पादपूर्व, अग्रायणी, वीर्यानुप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुप्रवाद, कल्याणप्रबाद, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार । तीर्थङ्करोंके साक्षात् शिष्य, बुद्धि और ऋद्धिके अतिशय निधान, श्रुतकेवली गणधरोंके द्वारा ग्रन्थबद्ध किया गया वह अङ्ग-पूर्वरूप श्रुत इसलिए प्रमाण है कि इसके मूल वक्ता परम अचिन्त्य केवलज्ञानविभूतिवाले परम ऋषि सर्वज्ञदेव हैं। आरातीय आचार्योंके द्वारा अल्पमति शिष्योंके अनुग्रहके लिए जो दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि रूपमें रचा गया अङ्गबाह्य श्रुत है वह भी प्रमाण है, क्योंकि अर्थरूपमें यह श्रुत तीर्थङ्कर प्रणीत अङ्गप्रविष्टसे जुदा नहीं है। यानी इस अङ्गबाह्य श्रुतकी परम्परा चूंकि अङ्गप्रविष्ट श्रुतसे बँधी हुई है, अतः उसीकी तरह प्रमाण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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