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________________ नय-विचार 349 इस नयके अभिप्रायसे एकलिंगवाले इन्द्र, शक्र और पुरन्दर इन तीन शब्दोंमें प्रवृत्तिनिमित्तकी भिन्नता होनेसे भिन्नार्थवाचकता है। शक्र शब्द शासनक्रियाकी अपेक्षासे, इन्द्र शब्द इन्दन-ऐश्वर्यक्रियाकी अपेक्षासे और पुरन्दर शब्द पूर्दारण क्रियाकी अपेक्षासे, प्रवृत्त हुआ है। अतः तीनों शब्द विभिन्न अवस्थाओंके वाचक हैं / शब्दनयमें एकलिंगवाले पर्यायवाची शब्दोंमें अर्थभेद नहीं था, पर समभिरूढनय प्रवृत्तिनिमित्तोंकी विभिन्नता होनेसे पर्यायवाची शब्दोंमें भी अर्थभेद मानता है। यह नय उन कोशकारोंको दार्शनिक आधार प्रस्तुत करता है, जिनने एक ही राजा या पृथ्वीके अनेक नाम-पर्यायवाची शब्द तो प्रस्तुत कर दिये हैं, पर उस पदार्थमें उन पर्यायशब्दोंकी वाच्यशक्ति जुदा-जुदा स्वीकार नहीं की। जिस प्रकार एक अर्थ अनेक शब्दोंका वाच्य नहीं हो सकता, उसी प्रकार एक शब्द अनेक अर्थोंका वाचक भी नहीं हो सकता / एक गोशब्दके ग्यारह अर्थ नहीं हो सकते; उस शब्दमें ग्यारह प्रकारकी वाचकशक्ति मानना ही होगी। अन्यथा यदि वह जिस शक्तिसे पथिवीका वाचक है उसी शक्तिसे गायका भी वाचक हो; तो एकशक्तिक शब्दसे वाच्य होनेके कारण पृथिवी और गाय दोनों एक हो जायेंगे / अतः शब्दमें वाच्यभेदके हिसाबसे अनेक वाचकशक्तियोंकी तरह पदार्थमें भी वाचकभेदकी अपेक्षा अनेक वाचकशक्तियाँ माननी ही चाहिये / प्रत्येक शब्दके व्युत्पत्तिनिमित्त और प्रवृत्तिनिमित्त जुदे-जुदे होते हैं, उनके अनुसार वाच्यभूत अर्थमें पर्यायभेद या शक्तिभेद मानना ही चाहिये / यदि एकरूप ही पदार्थ हो; तो उसमें विभिन्न क्रियाओंसे निष्पन्न अनेक शब्दोंका प्रयोग ही नहीं हो सकेगा। इस तरह समभिरूढनय पर्यायवाची शब्दोंकी अपेक्षा भी अर्थभेद स्वीकार करता है। पर्यायवाची शब्दभेद मानकर भी अर्थभेद नहीं मानना समभिरूढनयाभास है। जो मत पदार्थको एकान्तरूप मानकर भी अनेक शब्दोंका प्रयोग करते हैं उनकी यह मान्यता तदाभास है। एवम्भूत और तदाभास : एवम्भूतनय', पदार्थ जिस समय जिस क्रियामें परिणत हो उस समय उसी क्रियासे निष्पन्न शब्दकी प्रवृत्ति स्वीकार करता है। जिस समय शासन कर रहा हो उसी समय उसे शक्र कहेंगे, इन्दन-क्रियाके समय नहीं। जिस समय घटनक्रिया हो रही हो, उसी समय उसे घट कहना चाहिये, अन्य समयमें नहीं। 1. 'येनात्मना भूतस्तेनैवाध्यवसाययति इत्येवम्भूतः / ' -सर्वार्थसिद्धि 1 / 33 / अकलङ्कग्रन्थत्रयटि० पृ० 147 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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