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________________ जैनदर्शन वह अवयवीव्यपदेश पा सकती है। स्थूल तामें भी अनेकप्रदेशव्यापित्वरूप दैशिक अभेददृष्टि ही अपेक्षणीय होती है। इस नयकी दृष्टिसे कह सकते हैं 'विश्व सन्मात्ररूप है, एक है, अद्वैत है; क्योंकि सद्रूपसे चेतन और अचेतनमें कोई भेद नहीं है। अद्वयब्रह्मवाद संग्रहाभास है, क्योंकि इसमें भेदका "नेह नानास्ति किञ्चन" (कठोप० 4 / 11) कहकर सर्वथा निराकरण कर दिया है। संग्रहनयमें अभेद मुख्य होनेपर भी भेदका निराकरण नहीं किया जाता, वह गौण अवश्य हो जाता है, पर उसके अस्तित्बसे इनकार नहीं किया जा सकता। अद्वयब्रह्मवादमें कारक और क्रियाओंके प्रत्यक्षसिद्ध भेदका निराकरण हो जाता है। कर्मद्वैत, फलद्वैत, लोकद्वैत, विद्या-अविद्याद्वैत आदि सभीका लोप इस मतमें प्राप्त होता है। अतः सांग्रहिक व्यवहारके लिये भले ही परसंग्रहनय जगत्के समस्त पदार्थोंको 'सत्' कह ले, पर इससे प्रत्येक द्रव्यके मौलिक अस्तित्वका लोप नहीं हो सकता। विज्ञानकी प्रयोगशाला प्रत्येक अणुका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार करती है। अतः संग्रहनयकी उपयोगिता अभेदव्यवहारके लिये ही है, वस्तुस्थितिका लोप करनेके लिये नहीं। इसी तरह शब्दाद्वैत भी संग्रहाभास है। यह इसलिये कि इसमें भेदका और द्रव्योंके उस मौलिक अस्तित्वका निराकरण कर दिया जाता है, जो प्रमाणसे प्रसिद्ध तो है ही, विज्ञानने भी जिसे प्रत्यक्ष कर दिखाया है। व्यवहार और अव्यवहाराभासः / संग्रहनयके द्वारा संगृहीत अर्थमें विधिपूर्वक, अविसंवादी और वस्तुस्थितिमूलक भेद करनेवाला व्यवहारनय है। यह व्यवहारनय लोकप्रसिद्ध व्यवहारका अविरोधी होता है। लोकव्यवहारविरुद्ध, विसंवादी और वस्तुस्थितिकी उपेक्षा करनेवाली भेदकल्पना व्यवहाराभास है। लोकव्यवहार अर्थ, शब्द और ज्ञान तीनोंसे चलता है। जीवव्यवहार जीव-अर्थ जीव-विषयक ज्ञान और जीव-शब्द तीनोंसे सधता है। 'वस्तु उत्पादव्यय- ध्रौव्यवाली है, द्रव्य गुण-पर्याय वाला है, 1. 'सर्वमेकं सदविशेषात्'-तत्त्वार्थभा० 1135 / 2. 'संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः।' -सर्वार्थसि० 1 / 33 / 3. 'कल्पनारोपितद्रव्यपर्यायप्रविभागभाक् / प्रमाणबाधितोऽन्यस्तु तदाभासोऽवसीयताम् ॥'-त० श्लो० पृ० 271 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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