SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नय-विचार भी व्यावहारिक ही है, पारमार्थिक नहीं। अनेक द्रव्योंका भेद पारमार्थिक ही है / 'मनुष्यत्व' मात्र सादृश्यमूलक कल्पना है। कोई एक ऐसा मनुष्यत्व नामका पदार्थ नहीं है, जो अनेक मनुष्यद्रव्योंमें मोतियोंमें सूतकी तरह पिरोया गया हो / सादृश्य भी अनेकनिष्ठ धर्म नहीं है, किन्तु प्रत्येक व्यक्तिमें रहता है। उसका व्यवहार अवश्य परसापेक्ष है, पर स्वरूप तो प्रत्येकनिष्ठ ही है। अतः किन्हीं भी सजातीय या विजातीय अनेक द्रव्योंका सादृश्यमूलक अभेदसे संग्रह केवल व्यावहारिक है, पारमार्थिक नहीं। अनन्त पुद्गलपरमाणुद्रव्योंको पुद्गलत्वेन एक कहना व्यवहारके लिए है। दो पृथक परमाणुओंकी सत्ता कभी भी एक नहीं हो सकती। एक द्रव्यगत ऊर्ध्वतासामान्यको छोड़कर जितनी भी अभेद-कल्पनाएँ अवान्तरसामान्य या महासामान्यके नामसे की जाती हैं, वे सब व्यावहारिक हैं / उनका वस्तुस्थितिसे इतना ही सम्बन्ध है कि वे शब्दोंके द्वारा उन पृथक् वस्तुओंका संग्रह कर रही हैं / जिस प्रकार अनेकद्रव्यगत अभेद व्यावहारिक है उसी तरह एक द्रव्यमें कालिक पर्यायभेद वास्तविक होकर भी उनमें गुणभेद और धर्मभेद उस अखंड अनिर्वचनीय वस्तुको समझने-समझाने और कहनेके लिए किया जाता है। जिस प्रकार पृथक सिद्ध द्रव्योंको हम विश्लेषणकर अलग स्वतन्त्रभावसे गिना सकते हैं उस तरह किसी एक द्रव्यके गुण और धर्मोंको नहीं बता सकते / अतः परमार्थद्रव्याथिकनय एकद्रव्यगत अभेदको विषय करता है, और व्यवहार पर्यायाथिक एकद्रव्यकी क्रमिक पर्यायोंके कल्पित भेदको। व्यवहारद्रव्यार्थिक अनेकद्रव्यगत कल्पित अभेदको जानता है और परमार्थ पर्यायार्थिक दो द्रव्योंके वास्तविक परस्पर भेदको जानता है। वस्तुतः व्यवहारपर्यायाथिककी सीमा एक द्रव्यगत गुणभेद और धर्मभेद तक ही है। द्रव्यास्तिक और द्रव्याथिक : तत्त्वार्थवार्तिक ( 1 / 33 ) में द्रव्याथिकके स्थानमें आनेवाला द्रव्यास्तिक और पर्यायाथिकके स्थानमें आनेवाला पर्यायास्तिक शब्द इसी सूक्ष्मभेदको सूचित करता है। द्रव्यास्तिकका तात्पर्य है कि जो एकद्रव्यके परमार्थ अस्तित्वको विषय करे और तन्मलक ही अभेदका प्रख्यापन करे। पर्यायास्तिक एकद्रव्यकी वास्तविक क्रमिक पर्यायोंके अस्तित्वको मानकर उन्हीं के आधारसे भेदव्यवहार करता है। इस दृष्टिसे अनेकद्रव्यगत परमार्थ भेदको पर्यायार्थिक विषय करके भी उनके भेदको किसी द्रव्यको पर्याय नहीं मानता। यहाँ पर्यायशब्दका प्रयोग व्यवहारार्थ है / तात्पर्य यह है कि एकद्रव्यगत अभेदको द्रव्यास्तिक और परमार्थ द्रव्यार्थिक, एकद्रव्यगत पर्यायभेदको पर्यायास्तिक और व्यवहार पर्यायार्थिक, अनेक 22 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy