________________ जैन दर्शन प्रमाणमे पूर्ण वस्तु समाती है / नय एक अंशको मुख्य रूपसे ग्रहण करके भी अन्य अंशोंको गौण करता है, पर उनकी अपेक्षा रखता है, तिरस्कार तो कभी भी नहीं करता। किन्तु दुर्नय अन्यनिरपेक्ष होकर अन्यका निराकरण करता है। प्रमाण' 'तत् और अतत्' सभीको जानता है, नयमें 'अतत्' या 'तत्' गौण रहता है और केवल 'तत्' या 'अतत्' की प्रतिपत्ति होती है, पर दुर्नय अन्यका निराकरण करता रूपसे जानता है जब कि दुर्नय 'सदेव' ऐसा अवधारणकर अन्यका तिरस्कार करता है / निष्कर्ष यह कि सापेक्षता ही नयका प्राण है / आचार्य सिद्धसेनने अपने सन्मतिसूत्र ( 1 / 21-25 ) में कहा है कि "तम्हा सव्वे वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा। अण्णोण्णणिस्सिआ उण हवन्ति सम्मत्तसब्भावा / " -सन्मति० 1 / 22 / वे सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं जो अपने ही पक्षका आग्रह करते हैं-परका निषेध करते हैं, किन्तु जब वे ही परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं तब सम्यक्त्वके सद्भाववाले होते हैं अर्थात् सम्यग्दृष्टि होते हैं। जैसे अनेक प्रकारके गुणवाली वैडूर्य आदि मणियाँ महामूल्यवाली होकर भी यदि एक सूत्रमें पिरोई हुई न हों, परस्पर घटक न हों, लो 'रत्नावली' संज्ञा नहीं पा सकती, उसी तरह अपने नियत वादोंका आग्रह रखनेवाले परस्पर-निरपेक्ष नय सम्यक्त्वपनेको नहीं पा सकते, भले ही वे अपने-अपने पक्षके लिये कितने ही महत्त्वके क्यों न हों। जिस प्रकार वे ही मणियाँ एक सूतमें पिरोई जाकर 'रत्नावली या रत्नाहार' बन जाती हैं उसी तरह सभी नय परस्परसापेक्ष होकर सम्यकपनेको प्राप्त हो जाते हैं, वे सुनय बन जाते हैं / अन्तमें वे कहते हैं "जे वयणिज्जवियप्पा संजुज्जतेसु होंति एएसु / सा ससमयपण्णवणा तित्थयरासायणा अण्णा // " 5. 'धर्मान्तरादानोपेक्षाहानिलक्षणत्वात् प्रमाणनय दुर्नयानां प्रकारान्तरासंभवाच्च / प्रमाणात्तदतत्स्वभावप्रतिपत्तेः तत्प्रतिपत्तेः तदन्यनिराकृतेश्च / ' -अष्टश०, अष्टसह० पृ० 290 ! 2. 'सदेव सत् स्यात् सदिति त्रिधाओं मीयेत दुनोतिनयप्रमाणैः।' -अन्ययोगव्य० श्लो० 28 / 3. 'निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् / ' -आप्तमी० श्लो० 108 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org