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________________ प्रमाणमीमांसा 331 तरह सामान्य, विशेष और समवाय स्वतः सत् है- इनमें किसी अन्य सत्ताके सम्बन्धकी कल्पना नहीं की जाती, उसी तरह द्रव्यादि भी स्वतःसिद्ध सत् हैं, इनमें भी सत्ताके सम्बन्धकी कल्पना निरर्थक है। ___वैशेषिक तुल्य ओकृतिवाले और तुल्य गुणवाले परमाणुओंमें, मुक्त आत्माओंमें और मुक्त आत्माओं द्वारा त्यक्त मनोंमें भेद-प्रत्यय करानेके लिये इन प्रत्येकमें एक विशेष नामक पदार्थ मानते हैं / ये विशेष अनन्त हैं और नित्यद्रव्यवृत्ति हैं। अन्य अवयवी आदि पदार्थोंमें जाति, आकृति और अवयवसंयोग आदिके कारण भेद किया जा सकता है, पर समान आकृतिवाले, समानगुणवाले नित्य द्रव्योंमें भेद करनेके लिये कोई अन्य निमित्त चाहिये और वह निमित्त है विशेष पदार्थ / परन्तु प्रत्ययके आधारसे पदार्थ-व्यवस्था माननेका सिद्धान्त ही गलत है। जितने प्रकारके प्रत्यय होते हैं, उतने स्वतन्त्र पदार्थ यदि माने जायँ तो पदार्थोंकी कोई सीमा ही नहीं रहेगी। जिस प्रकार एक विशेष दूसरे विशेषसे स्वतः व्यावृत्त है, उसमें अन्य किसी व्यावर्तककी आवश्यकता नहीं है, उसी तरह परमाणु आदि समस्त पदार्थ अपने असाधारण निज स्वरूपसे ही स्वतः व्यावृत्त रह सकते हैं, इसके लिये भी किसी स्वतन्त्र विशेष पदार्थकी कोई आवश्यकता नहीं है / व्यक्तियाँ स्वयं ही विशेष हैं / प्रमाणका कार्य है स्वतःसिद्ध पदार्थोंकी असंकर व्याख्या करना न कि नये-नये पदार्थोंकी कल्पना करना। फलाभास': प्रमाणसे फलको सर्वथा अभिन्न या सर्वथा भिन्न कहना फलाभास है। यदि प्रमाण और फलमें सर्वथा भेद माना जाता है; तो भिन्न-भिन्न आत्माओंके प्रमाण और फलोंमें जैसे प्रमाण-फलभाव नहीं बनता, उसी तरह एक आत्माके प्रमाण और फलमें भी प्रमाण-फलव्यवहार नहीं होना चाहिये। समवायसम्बन्ध भी सर्वथा भेद की स्थितिमें नियामक नहीं हो सकता / यदि सर्वथा अभेद माना जाता है तो 'यह प्रमाण है और यह फल' इस प्रकारका भेदव्यवहार और कारणकार्यभाव भी नहीं हो सकेगा। जिस आत्माकी प्रमाणरूपसे परिणति हुई है उसीकी अज्ञाननिवृत्ति होती है, अतः एक आत्माकी दृष्टिसे प्रमाण और फलमें अभेद है और साधकतमकरणरूप तथा प्रमितिक्रियारूप पर्यायोंकी दृष्टिसे उनमें भेद है। अतः प्रमाण और फलमें कथञ्चिद् भेदाभेद मानना ही उचित है / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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