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________________ जैनदर्शन १. पृष्ठभूमि और सामान्यावलोकन कर्मभूमिका प्रारम्भ : ___ जैन अनुश्रुतिके अनुसार इस कल्पकालमें पहले भोगभूमि थी । यहाँके निवासी अपनी जीवनयात्रा कल्पवृक्षोंसे चलाते थे। उनके खाने-पीने, पहिरने-ओढ़ने, भूषण, मकान, सजावट, प्रकाश और आनन्द-विलासकी सब आवश्यकताएँ इन वृक्षोंसे ही पूर्ण हो जाती थीं। इस समय न शिक्षा थी और न दीक्षा । सब अपने प्राकृत भोगमें ही मग्न थे। जनसंख्या कम थी। युगल उत्पन्न होते थे और दोनों ही जीवन-सहचर बनकर साथ रहते थे और मरते भी साथ ही थे। जब धीरे-धीरे यह भोगभूमिकी व्यवस्था क्षीण हुई, जनसंख्या बढ़ी और कल्पवृक्षोंकी शक्ति प्रजाकी आवश्यकताओंकी पूर्ति नहीं कर सकी, तब कर्मभूमिका प्रारम्भ हुआ। भोगभूमिमें सन्तान-युगलके उत्पन्न होते ही माँ-बापयुगल मर जाते थे। अतः कुटुम्ब-रचना और समाज-रचनाका प्रश्न ही नहीं था। प्रत्येक युगल स्वाभाविक क्रमसे बढ़ता था और स्वाभाविक रीतिसे ही भोग भोगकर अपनी जीवनलीला प्रकृतिकी गोदमें ही संवृत कर देता था। किन्तु जब सन्तान अपने जीवनकालमें ही उत्पन्न होने लगी और उनके लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा आदिकी समस्याएँ सामने आई, तब वस्तुतः भोगजीवनसे कर्मजीवन प्रारम्भ हुआ। इसी समय क्रमशः चौदह कुलकर या मनु उत्पन्न होते हैं। वे इन्हें भोजन बनाना, खेती करना, जंगली पशुओंसे अपनी और सन्तानकी रक्षा करना, उनका सवारी आदिमें उपयोग करना, चन्द्र, सूर्य आदिसे निर्भय रहना तथा समाज-रचनाके मूलभूत अनुशासनके नियम आदि सभी कुछ सिखाते हैं। वे ही कुलके लिये उपयोगी मकान बनाना, गांव बसाना आदि सभी व्यवस्थाएँ जमाते हैं, इसीलिये उन्हें कुलकर या मनु कहते हैं । अन्तिम कुलकर श्रीनाभिरायने जन्मके समय बच्चोंकी नाभिका नाल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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