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जैनदर्शन
तीर्थङ्करकी वाणी बीज किन-किन परिस्थितियोंमें कैसे-कैसे अङ्कुरित, पल्लवित, पुष्पित और सफल हुए ।
१. प्रथम प्रकरण - 'पृष्ठभूमि और सामान्यावलोकन' में इस कर्मभूमिके आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेवसे लेकर अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर तक तथा उनसे आगे के आचार्यों तक जैन तत्त्वकी धारा किस रूप में प्रवाहित हुई है, इसका सामान्य विचार किया गया है । इसी में जैनदर्शनका युग - विभाजनकर उन-उन युगोंमें उसका क्रमिक विकास बताया है ।
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२. द्वितीय प्रकरण - 'विषय प्रवेश' में दर्शनकी उद्भूति, दर्शनका वास्तविक अर्थ, भारतीय दर्शनोंका अन्तिम लक्ष्य, जैनदर्शन के मूल मुद्दे आदि शीर्षकोंसे इस ग्रन्थ विषय-प्रवेशका सिलसिला जमाया गया है ।
३. तृतीय - 'जैनदर्शनकी देन' प्रकरण में जैनदर्शनकी महत्त्वपूर्ण विरासत - अनेकान्तदृष्टि, स्याद्वाद - भाषा, अनेकान्तात्मक वस्तुस्वरूप, धर्मज्ञता - सर्वज्ञताविवेक, पुरुषप्रामाण्य, निरीश्वरवाद, कर्मणा वर्णव्यवस्था, अनुभवकी प्रमाणता और साध्यकी तरह साधनकी पवित्रताका आग्रह आदिका संक्षिप्त दिग्दर्शन कराया गया है ।
४. चतुर्थ - 'लोक - व्यवस्था' प्रकरणमें इस विश्वको व्यवस्था जिस उत्पादादादि त्रयात्मक परिणामी स्वभावके कारण स्वयमेव है उस परिणामवादका, सत्के स्वरूपका और निमित्त, उपादान आदिका विवेचन है । साथ ही विश्वकी व्यवस्था के सम्बन्धमें जो कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, पुरुषवाद, कर्मवाद, भूतवाद, यदृच्छावाद और अव्याकृतवाद आदि प्रचलित थे, उनकी आलोचना करके उत्पादात्रियात्मक परिणामवादका स्थापन किया गया है । आधुनिक भौतिकवाद, विरोधी समागम और द्वन्द्ववादकी तुलना और मीमांसा भी परिणामवादसे की गई है ।
५. पञ्चम—'पदार्थस्वरूप' प्रकरण में पदार्थके त्रयात्मक स्वरूप, गुण और धर्मको व्याख्या आदि करके सामान्यविशेषात्मकत्वका समर्थन किया गया है ।
६. छठे --'षट् द्रव्यविवेचन' प्रकरणमें जीवद्रव्यके विवेचनमें व्यापक आत्मवाद, अणुआत्मवाद, भूतचैतन्यवाद आदिको मीमांसा करके आत्माको कर्त्ता, भोक्ता, स्वदेहपरिमाण और परिणामी सिद्ध किया गया है। पुद्गल द्रव्यके विवेचनमें पुद्गलोंके अणु-स्कन्ध भेद, स्कन्धकी प्रक्रिया, शब्द, बन्ध आदिका पुद्गलपर्यायत्व आदि सिद्ध किया है । इसी तरह धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य और कालद्रव्यका विविध मान्यताओंका उल्लेख करके स्वरूप बताया है। साथ ही वैशेषिक आदिकी द्रव्य व्यवस्था और पदार्थ-व्यवस्थाका अन्तर्भाव दिखाया है। इसी प्रकरण में कार्योत्पत्तिविचार में सत्कार्यवाद, असत्कार्यवाद आदिकी आलोचना करके सदसत्कार्यवादका समर्थन किया है ।
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