________________ जैनदर्शन 4. मोक्षतत्त्व: बन्धन-मुक्तिको मोक्ष कहते हैं / बन्धके कारणोंका अभाव होनेपर तथा संचित कर्मोंकी निर्जरा होनेसे समस्त कर्मोंका समूल उच्छेद होना मोक्ष है। आत्माकी वैभाविकी शक्तिका संसार अवस्थामें विभाव परिणमन होता है। विभाव परिणमनके निमित्त हट जानेसे मोक्ष दशामें उसका स्वाभाविक परिणमन हो जाता है / जो आत्माके गुण विकृत हो रहे थे वे ही स्वाभाविक दशामें आ जाते हैं / मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शन बन जाता है, अज्ञान ज्ञान बन जाता है और अचारित्र चारित्र। इस दशामें आत्माका सारा नकशा ही बदल जाता है। जो आत्मा अनादि कालसे मिथ्यादर्शन आदि अशुद्धियों और कलुषताओंका पुञ्ज बना हुआ था, वही निर्मल, निश्चल और अनन्त चैतन्यमय हो जाता है। उसका आगे सदा शुद्ध परिणमन ही होता है। वह निस्तरंग समुद्रकी तरह निर्विकल्प, निश्चिल और निर्मल हो जाता है / न तो निर्वाण दशामें आत्माका अभाव होता है और न वह अचेतन ही हो जाता है। जब आत्मा एक स्वतन्त्र मौलिक द्रव्य है, तब उसके अभावकी या उसके गुणोंके उच्छेदकी कल्पना ही नहीं की जा सकती। प्रतिक्षण कितने ही परिवर्तन होते जाँय, पर विश्वके रंगमञ्चसे उसका समूल उच्छेद नहीं हो सकता। दीपनिर्वाणकी तरह आत्मनिर्वाण नहीं होता: . बुद्धसे जब प्रश्न किया गया कि 'मरने के बाद तथागत होते हैं या नहीं ?' तो उन्होंने इस प्रश्नको अव्याकृत कोटिमें डाल दिया था। यही कारण हुआ कि बुद्धके शिष्योंने निर्वाणके सम्बन्धमें अनेक प्रकारकी कल्पनाएँ कीं। एक निर्वाण वह, जिसमें चित्तसन्तति निरास्रव हो जाती है, यानी चित्तका मैल धुल जाता है / इसे 'सोपधिशेष' निर्वाण कहते हैं। दूसरा निर्वाण वह, जिसमें दीपकके समान चित्तसंतति भी बुझ जाती है अर्थात् उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है / यह 'निरुपधिशेष' निर्वाण कहलाता है। रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार इन पंच स्कन्धरूप आत्मा माननेका यह सहज परिणाम था कि निर्वाण दशामें उसका अस्तित्व न रहे। आश्चर्य है कि बुद्ध निर्वाण और आत्माके परलोकगामित्वका निर्णय बताये बिना ही मात्र दुःखनिवृत्तिके सर्वाङ्गीण औचित्यका समर्थन करते रहे। यदि निर्वाणमें चित्तसन्ततिका निरोध हो जाता है, वह दीपककी लौकी तरह बुझ जाती है, तो बुद्ध उच्छेदवादके दोषसे कैसे बच सके ? आत्माके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org