________________ तत्त्व-निरूपण 173 पदार्थोंके स्वरूपमें भ्रान्ति बनी रहती है। तात्पर्य यह कि कल्याणमार्गमें इसकी सम्यक् श्रद्धा नहीं होती / यह मिथ्यात्व सहज और गृहीत दो प्रकारका होता है। इन दोनों मिथ्यादृष्टियोंसे इसे तत्त्वरुचि जागृत नहीं होती। यह अनेक प्रकारकी देव, गुरु तथा लोकमूढताओंको धर्म मानता है / अनेक प्रकारके ऊँच-नीच भेदोंकी सृष्टि करके मिथ्या अहंकारका पोषण करता है। जिस किसी देवको, जिस किसी भी वेषधारी गुरुको, जिस किसी भी शास्त्रको भय, आशा, स्नेह और लोभसे माननेको तैयार हो जाता है। न उसका अपना कोई सिद्धान्त होता है और न व्यवहार / थोड़ेसे प्रलोभनसे वह सभी अनर्थ करनेको प्रस्तुत हो जाता है। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीरके मदसे मत्त होता है और दूसरोंको तुच्छ समझ उनका तिरस्कार करता है / भय, स्वार्थ, घृणा, परनिन्दा आदि दुर्गुणोंका केन्द्र होता है। इसकी समस्त प्रवृत्तियोंके मूलमें एक ही कुटेव रहती है और वह है स्वरूपविभ्रम / उसे आत्मस्वरूपका कोई श्रद्धान नहीं होता, अतः वह बाह्यपदार्थोंमें लुभाया रहता है। यही मिथ्यादृष्टि समस्त दोषोंकी जननी है, इसीसे अनन्त संसारका बन्ध होता है / अविरति: सदाचार या चारित्र धारण करनेकी ओर रुचि या प्रवृत्ति नहीं होना अविरति है / मनुष्य कदाचित् चाहे भी, पर कषायोंका ऐसा तीव्र उदय होता है जिससे न तो वह सकलचारित्र धारण कर पाता है और न देशचारित्र ही। क्रोधादि कषायोंके चार भेद चारित्रको रोकनेकी शक्तिकी अपेक्षासे भी होते हैं१. अनन्तानुबन्धी-अनन्त संसारका बन्ध करानेवाली, स्वरूपाचरण चारित्र न होने देनेवाली, पत्थरकी रेखाके समान कषाय / यह मिथ्यात्वके साथ रहती है। 2. अप्रत्याख्यानावरण-देशचारित्र अर्थात् श्रावकके अणुव्रतोंको रोकनेवाली, मिट्टीकी रेखाके समान कषाय / 3. प्रत्याख्यानावरण-सकलचारित्रको न होने देनेवाली, धूलिकी रेखाके समान कषाय। 4. संज्वलन कषाय-पूर्ण चारित्रमें किंचित् दोष उत्पन्न करनेवाली, जलरेखाके समान कषाय / इसके उदयसे यथाख्यातचारित्र नहीं हो पाता / इस तरह इन्द्रियोंके विषयोंमें तथा प्राणिविषयक असंयममें निरर्गल प्रवृत्ति होनेसे कर्मोंका आस्रव होता है / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org