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________________ तत्त्व-निरूपण इसी सर्वात्मसमत्वकी मूलज्योति महावीर बननेवाले क्षत्रियराजकुमार वर्धमानके मनमें जगी थी और तभी वे प्राप्तराजविभूतिको बन्धन मानकर बाहर-भीतरकी सभी गाँठे खोलकर परमनिर्ग्रन्थ बने और जगत्में मानवताको वर्णभेदकी चक्कीमें पीसनेवाले तथोक्त उच्चाभिमानियोंको झकझोरकर एक बार रुककर सोचनेका शीतल वातावरण उपस्थित कर सके / उनने अपने त्याग और तपस्याके साधक जीवनसे महत्ताका मापदण्ड ही बदल दिया और उन समस्त त्रासित शोषित अभिद्रावित और पीड़ित मनुष्यतनधारियोंको आत्मवत् समझ धर्मके क्षेत्रमें समानरूपसे अवसर देनेवाले समवसरणकी रचना की / तात्पर्य यह कि अहिंसाकी विविध प्रकारकी साधनाओंके लिए आत्माके स्वरूप और उसके मूल अधिकार-मर्यादाका ज्ञान उतना ही आवश्यक है जितना कि परपदार्थोसे विवेक प्राप्त करनेके लिए 'पर' पुद्गलका ज्ञान / बिना इन दोनोंका वास्तविक ज्ञान हुए सम्यग्दर्शनकी वह अमरज्योति नहीं जल सकती, जिसके प्रकाशमें मानवता मुसकुराती है और सर्वात्मसमताका उदय होता है। ___ इस आत्मसमानाधिकारका ज्ञान और उसको जीवनमें उतारनेकी दृढ़निष्ठा ही सर्वोदयकी भूमिका हो सकती है / अतः वैयक्तिक दुःखकी निवृत्ति तथा जगत में शान्ति स्थापित करनेके लिए जिन व्यक्तियोंसे यह जगत् बना है उन व्यक्तियोंके स्वरूप और अधिकारकी सीमाको हमें समझना ही होगा / हम उसकी तरफसे आँख मँदकर तात्कालिक करुणा या दयाके आँसू बहा भी लें, पर उसका स्थायी इलाज नहीं कर सकते / अतः भगवान् महावीरने बन्धनमुक्तिके लिये जो 'बंधा है तथा जिससे बंधा है' इन दोनों तत्त्वोंका परिज्ञान आवश्यक बताया / बिना इसके बन्धपरम्पराके समलोच्छेद करनेका सङ्कल्प ही नहीं हो सकता और न चारित्रके प्रति उत्साह ही हो सकता है / चारित्रकी प्रेरणा तो विचारोंसे ही मिलती है / 2. अजीवतत्त्व : जिस प्रकार आत्मतत्त्वका ज्ञान आवश्यक है, उसी प्रकार जिस अजीवके सम्बन्धसे आत्मा विकृत होता है, उसमें विभावपरिणति होती है उस अजीवतत्त्वके ज्ञानको भी आवश्यकता है। जब तक हम इस अजीवतत्त्वको नहीं जानेंगे तब तक 'किन दोमें बन्ध हुआ है' यह मूल बात ही अज्ञात रह जाती है / अजीवतत्त्वमें धर्म, अधर्म, आकाश और कालका भले ही सामान्यज्ञान हो; क्योंकि इनसे आत्माका कोई भला बुरा नहीं होता, परन्तु पुद्गल द्रव्यका किंचित् विशेषज्ञान अपेक्षित है। शरीर, मन, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्रास और वचन आदि सब पुद्गलका ही है। जिसमें शरीर तो चेतनके संसर्गसे चेतनायमान हो रहा है। जगत्में रूप, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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